पाण्डुकेश्वर नामक स्थान उत्तराखण्ड के चमोली जनपद के अलकनंदा घाटी में स्थित गोविन्दघाट के निकट है। प्राचीन काल में हस्तिनापुर के राजा पाण्डु ने यहाँ तप किया था। इसलिए इस स्थान को पाण्डुकेश्वर कहा गया। राजा पाण्डु ने ऋर्षि किंडम के शाप से मुक्ति पाने हेतु यहाँ भगवान विष्णु का ध्यान और तप किया। इस कारण यहाँ का मंदिर ‘योग ध्यान बदरी’ कहलाया। पाण्डुकेश्वर शब्द ‘पाण्डुक’ और ईश्वर की संधि से बना है। ‘पाण्डुक’ का शाब्दिक अर्थ ‘पाण्डु रोग’ या सफेद रंग है। उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास के लिए महत्वपूर्ण पाण्डुकेश्वर गांव अलकनंदा के दायें तट पर स्थित है, जहाँ से कार्तिकेयपुर एवं सुभिक्षुपुर उद्घोष वाले कुल चार ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं। इसलिए इन ताम्रपत्रों को पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्र भी कहते हैं। कार्तिकेयपुर उद्घोष वाले यहाँ से प्राप्त ललितशूरदेव के दो ताम्रपत्र उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास के लिए महत्वपूर्ण हैं, इनमें से एक ताम्रपत्र 21 वें राज्य वर्ष का है, जिसमें कुल 30 पंक्तियां हैं।
इस ताम्रपत्र की प्रथम पंक्ति में कार्तिकेयपुर, तृतीय पंक्ति में शिव का नाम धूर्ज्जटेः तथा चतुर्थ पंक्ति में कुल देवी भगवती नंदा के साथ कुल पुरुष ‘निम्बर’ का उल्लेख किया गया है। पांचवीं पंक्ति में निम्बर की रानी नाथूदेवी और उनसे उत्पन्न पुत्र ‘इष्टगणदेव’ तथा छठी पंक्ति में इस राजा का उल्लेख उनकी महारानी वेग देवी के साथ किया गया है। सातवीं, आठवीं और नौवीं पंक्ति में इष्टगणदेव तथा उनकी महारानी वेगदेवी से उत्पन्न पुत्र की प्रशंसा की गई है। दशवीं पंक्ति में ललितशूरदेव और कार्तिकेयपुर विषय का उल्लेख किया गया है।
ग्यारहवीं पंक्ति में अमात्य, सामन्त, महासामन्त, ठक्कुर, महामनुष्य, महाकर्तृकृतिक, महाप्रतीहार, महादण्डनायक और महाराज प्रमातार आदि उच्च राज्याधिकारियों का उल्लेख किया गया है। बारहवीं पंक्ति में कुमारामात्य, उपरिक, दुस्याध्यासाधनिक, दशापराधिक, चौरोद्धरणिक, शौल्किक, शौल्मिक, तदायुक्तक, विनियुक्तक, पट्टाक, आपचारिक, अशेषभंग, अधिकृत हस्ति-अश्व-उष्ट्र का उल्लेख किया गया है।
पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्र में उत्कीर्ण प्रथम बारह पंक्तियां-
1- स्वस्तिश्रीमत्कार्तिकेयपुरात्सकलामरदितितनुजमनुजविभुभक्तिभावभरभारानमितामितोत्तमांगसंगिविकटमुकुट- -किरिटविटंककोटिकोटिशोलोकता-
2-नाना(ताता)यकप्रदीपदीपदीधितिपानमदरक्तचरणकमलामलविपुलबहुलकिरणकेशरासारसारिताशेषविशेष- -मोषिघनतमस्तेजसस्स्वर्धुनोधौतजटाजू-
3-टस्यभगवतोधूर्ज्जटेःप्रसादान्निजभुजोपार्ज्जिर्तौज्जित्यनिर्ज्जितरिपुतिमिरलब्धोदयप्रकाशदयादाक्षिणयसत्यसत्व-
शीलशौचशौर्योदार्यगाम्भीर्यमर्यादार्यवृत्ताश्चर्य-
4-कार्यवर्यादिगुणगणालंकृतशरीरःमहासुकृतिसंतानवीजावतारःकृतयुगागमभूपालललितकीर्तिःनंदाभगवतीचरणकम- -लकमलासनाथमूर्तिःश्रीमिम्बरस्तस्यत-
5- नयस्तत्पादानुध्यातोराज्ञीमहादेवीश्रीनाथूदेवीतस्यामुत्पन्नःपरममाहेश्वरःपरमब्रह्मण्यःशितकृपाणधारोत्कृतमत्ते-
-भुकम्भाकृटोत्कृष्टमुक्तावलीयशःपताका-
6-च्छायचन्द्रिकापहसिततारागणःपरमभट्टारकमहाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीमदिष्टगणदेवस्तस्यपुत्रस्तत्पादानुध्या- -तोराज्ञीमहादेवीश्रीवेगदेवीतस्यामुत्पन्नःपरममा-
7-हेश्वरःपरमब्रह्मण्यःकलिकलंकपंकातंकमग्नधरण्युद्धारधारितधौरेयवरवराहचरितःसहजमतिविभवविभुतिस्थगिता-
-रातिचकःप्रतापदहनः।अतिवैभवसंहारारम्भसं-
8-भृतभीमभ्रुकुटिकुटिलकेसरिसटाभीतभीतारातीभकलभभरःअरुणारुणकृपाणवाणगुणप्राणगणहठाकृष्टोत्कृष्टस लीलजयलक्ष्मीप्रथमसमालिंगनावलो-
9-कनवलक्ष्यसखेदसुरसुन्दरीविधूतकरस्लद्वलयकुसुमप्रकरप्रकीर्णावतंससम्वर्द्धितकीर्तिवीजःपृथुरिवदोर्द्दण्डसधित-
-धनुर्म्मण्डलबलावष्टभ्भवश-
10-वशीकृतगोपालनानिश्चलीकृतधराधरेन्द्रःपरमभट्टारकमहाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीमल्ललितशूरदेवकुशलीअस्मि-
-न्नेवश्रीमत्कार्तिकेयपुरविषयेसमु
11-पगतान्सर्व्वानवनियोगस्थान्राजराजतकराजपुत्रासृष्टामात्यसामंतमहासामंतठक्कुरमहामनुष्यमहाकर्तृकृतिकम–हाप्रतीहारमहादण्डनायकमहाराजप्रमातारश-
12-रभंगकुमारामात्योपरिकदुस्याध्यासाधनिकदशापराधिकचौरोद्धरणिकशौल्किकशौल्मिकतदायुक्तकविनियुक्त कपट्टाकापचारिकाशेषभंगाधिकृतहरत्यश्वोष्ट्र-
विवेचना-
ताम्रपत्र का आरंभ स्वस्ति से किया गया है। कत्यूरियों के पश्चात कुमाऊँ में चंद राज्य अस्तित्व में आया। चंद राजाओं ने भी अपने अधिकांश ताम्रपत्रों का आरंभ स्वस्ति से किया था, जिसका अर्थ ‘कल्याण हो’ होता है। प्रथम पंक्ति में स्वस्ति श्रीमत्कार्तिकेयपुरात् सकलामर दिति तनुज मनुज विभुभक्ति भाव भर भारान् अमितामित उत्तम अंग संगि विकट मुकुट किरिट विटंक कोटि कोटिशोलोकता के आधार पर बद्रीदत्त पाण्डे इस पंक्ति का अर्थ लिखते हैं- ‘‘कल्याण हो! श्रीमान् कार्तिकेयपुर के समस्त देवगणों के अनुचर द्वारा पूजित किया गया है, भक्ति-भावना के साथ सिर झुकाते हुए मुकुट मणियों की किरणों से प्रकाशमान नखचन्द्र की कला जिसकी है, ऐसे-।’’
द्वितीय पंक्ति में क्रमशः नाना(ताता) यक प्रदीप दीप दीधिति पान मद रक्त चरण कमलामल विपुल बहुल किरण केश रासा रसा रिता शेष विशेष मोषि घन तमस्ते जसस् स्व र्धुनोधौत जटाजू के आधार पर पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते है- ‘‘आपका सर्वतः प्रकाशमान, प्रदीपों के प्रकाश को मंद करने वाला, देवताओं के सामने झुका हुआ, उनकी पृथ्वी पर गिरी हुई मकरंद रक्त से धूसरित हो गया है सिर के केशों का झुण्ड जिसका, ऐसे-’’
जटासू से संयुक्त शब्द ‘टस्य’ से आगे तृतीय पंक्ति इस प्रकार से है- भगवतो धूर्ज्जटेः प्रसादान्निज भुज उपार्ज्जित उर्ज्जित्य निर्ज्जित रिपुतिमिर लब्धोदय प्रकाश दया दाक्षिण्य सत्य सत्व शील शौच शौर्योदार्य गाम्भीर्य मर्यादार्य वृत्ताश्चर्य के आधार पर पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘गंगा है मस्तक पर जिनके ऐसे भगवान् शंकर के प्रसाद से अपनी भुजा से उपार्जित किया है, शूरता से शत्रुओं को जीतकर उनकी समस्त धनराशि जिसने उसके द्वारा दया, चतुरता, सत्य, भाषण, उन्नत भाव, उच्च पवित्रता, उच्च उदारता, आदि गुणों का समूह जिसने, ऐसा-’’
चतुर्थ पंक्ति इस प्रकार से है- कार्य वर्यादि गुण गणालंकृत शरीरः महासुकृति संतान वीजावतारः कृत युगागम भूपाल ललित कीर्तिः नंदा भगवती चरणकमल कमलासनाथ मूर्तिः श्रीमिम्बरस्तस्यत के आधार पर पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं-‘‘अत्यन्त सुकृति की परंपरा का बीजारोपण करने वाला सतयुगी राजाओं के समान सुन्दर कीर्तिवाला, नंदादेवी के चरण-कमलों में झुके हुए सिर वाला जो श्री निम्बर है, उनका पुत्र-’’
पांचवीं पंक्ति इस प्रकार से है- नयस्तत्पाद अनुध्यातो राज्ञी महादेवी श्रीनाथूदेवी तस्याम् उत्पन्नः परम माहेश्वरः परम ब्रह्मण्यः शित कृपाण धार उत्कृतमत्ते भुकम्भाकृट उत्कृष्ट मुक्तावली यशः पताका के आधार पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘उनकी आज्ञा का पालन करने वाला, रानी महादेवी श्रीनाथूदेवी में उत्पन्न परम शैव, परम ब्राह्मणों का सेवक, पैनी तलवार की धाराओं काटे हुए हाथियों के मुण्डों के मस्तकों से गिरे हुए मुक्ताओं के समान सफेद हैं, यश की पताका जिसकी-’’
छठी पंक्ति इस प्रकार से है- च्छाय चन्द्रिका पहसित तारागण परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीईष्टगणदेवस्तस्य पुत्रस्त, त्पादानुध्यातो राज्ञी महादेवी श्रीवेगदेवी तस्याम् उत्पन्न परममा-हेश्वर (‘हेश्वर’ सातवीं पंक्ति से यहाँ संयुक्त किया गया) के आधार पर पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं-‘‘उस देश की पताका से हँस कर के फेंकी है, तारागणों की पंक्ति जिसने, ऐसा परम भटारक महाराजाधिराज महादेव है इष्टदेव जिनका पुत्र उनकी आज्ञा का पालन करने वाला रानी महादेवी श्रीमती वेगदेवी में पैदा हुआ।
सातवीं पंक्ति के प्रथम शब्द ‘हेश्वरः’ को छठी पंक्ति से संयुक्त कर लिया गया है। अतः सातवीं पंक्ति इस प्रकार से है- परम ब्राह्मण्यः कलि कलंक पंकातंक मग्न धरण्युद्धार धारित धौरेयवर वराह चरितः सहज मति विभवविभुति स्थगिता राति चकः प्रताप दहनः। अति वैभव संहारारम्भ (पंक्ति के अंतिम वर्ण ‘सं’ को आठवीं पंक्ति में संयुक्त में किया जायेगा।) के आधार पर पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘शंकर का परम भक्त, ब्राह्मणों का परम पूजक, कलि के कलंक रूपी पंक में डूबी हुई, पृथ्वी के उद्धार करने के लिए धारण किया है वराहा अवतार के समान शरीर जिसने, अपनी स्वाभाविक बुद्धि के विभव से इस्तगित किया है शत्रुओं प्रताप-चक्र जिसने, ऐसा-’’
सातवीं पंक्ति का अंतिम वर्ण ‘सं’ और आठवीं पंक्ति के प्रथम शब्द ‘भृत’ से संभृत शब्द बनता है। अतः आठवीं पंक्ति इस प्रकार से है- संभृत भीम भ्रुकुटि कुटिल केसरि सटा भीत भीताराती भकल भभरः अरुणारुण कृपाण वाण गुण प्राण गण हठाकृष्टोत्कृष्ट सलील जय लक्ष्मी प्रथम समालिंगन अवलो-कन (जहाँ वन नौवीं पंक्ति के प्रथम दो वर्ण हैं) के आधार पर पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं-‘‘अत्यन्त वैभव के साथ संहार करने के लिए भयंकर भ्रकुटि को बनाकर सिंह के समान समक्ष में आये हुए शत्रुओं के समूह पर निर्भय होकर रुधिर से लाल हुई तलवार को घुमाते हुए, शत्रुओं के स्वर्गारोहण के अनन्तर विजय लक्ष्मी ने आनंद के साथ आलिंगन किया है कंठ जिसका, ऐसे-’’
नौवीं पंक्ति के प्रथम शब्द ‘कन’ का प्रयोग आठवीं पंक्ति में किया जा चुका है। अतः नौवीं पंक्ति इस प्रकार से है- वलक्ष्य सखेद सुरसुन्दरी विधूत कर स्लद्वलय कुसुम प्रकर प्रकीर्णावतं ससम्वर्द्धित कीर्ति वीजः पृथुरिवदोर्द्दण्डसधित धनुर्म्मण्डल बलावष्टभ्भवश के आधार पर पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘देवांगनाओं के सुन्दर मुख के अवलोकन से शस्त्र को देवी के चरणों में रखकर पुष्प मालाओं द्वारा भगवती के विजय पताका-युक्त अपने सिर को जगदम्बा के चरणों में झुका कर, अपने भुजदण्ड के बल से अपनी शस्त्रों की सहायता से शत्रुओं के प्रचण्ड वेग को रोकते हुए समस्त सांमत राजाओं को भेंट के साथ अपने नियंत्रण में करने वाल-’’
दशवीं पंक्ति इस प्रकार से है- वशीकृत गोपालना निश्चली कृत धरा धरेन्द्रः परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीमल्ललितशूरदेव कुशली अस्मि–न्नेव श्रीमत्कार्तिकेयपुर विषयेसमु-पगतान् (ग्यारहवीं पंक्ति से ‘पगतान्’ शब्द को दशवीं पंक्ति में संयुक्त किया गया) के आधार पर पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं-‘‘पृथु के समान अपने भुजदण्ड के बल से समस्त धनुर्धारी शूरवीरों के गणों को स्तम्भित कर, अपने वश में लायी हुई अजल रूप से पालन की हुई धरा का सार ग्रहण करने वाले परम भट्टारक महाराजाधिराज राजाओं के राजा श्रीमान ललितशूरदेव कुशवंशावसंत इसी कार्तिकेयपुर के मण्डल में आये हुए।’’ (यहाँ पर कुशली शब्द का अर्थ कुशवंश दिया गया है, जो उचित नहीं है। कुशली का अर्थ कुशल से हैं)
ग्यारहवीं पंक्ति के प्रथम शब्द पगतान् को दशवीं पंक्ति से संयुक्त किया गया है। अतः ग्यारहवीं पंक्ति इस प्रकार से है- सर्व्वा नव नियोग स्थान राजराजतक राजपुत्रा सृष्टामात्य सामंत महासामंत ठक्कुर महामनुष्य महाकर्तृ कृतिक महाप्रतीहार महादण्ड नायक महाराज प्रमातार ( इस पंक्ति के अंतिम वर्ण ‘श’ को बारहवीं पंक्ति से संयुक्त किया जायेगा) के आधार पर बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं-‘‘समस्त पृथ्वी के राजाओं को, राजपुत्रों को, राजपौत्रों को, राजामात्यों को, उनके नीचे काम करने वाले छोटे-छोटे और बड़े-बड़े क्षत्रिय, महावीरों को, उनके साथ में आये हुए बड़े-बड़े द्वारपालों को हाथ में दण्ड लेकर महाराज का गुणगान करने वाले-’’
ग्यारहवीं पंक्ति के अंतिम वर्ण ‘श’ को बारहवीं पंक्ति में संयुक्त करने से यह पंक्ति इस प्रकार से है-शरभंग कुमारामात्य उपरिक दुस्याध्यासाधनिक दश अपराधिक चौर उद्धरणिक शौल्किक शौल्मिक तदायुक्तक विनियुक्तक पट्टाक अपचारिक अशेष भंगाधिकृत हस्ति अश्व उष्ट्र- के आधार पर पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं-‘‘उनकी प्राचीन कुल-परंपरा का, उनकी शूरता का, उनकी उदारता का, उनके दुःसाध्य कर्मों का, उनके द्वारा छोड़े हुए बड़े-बड़े चोर और डाकुओं के पकड़ने वाले वीरों का, उनसे उघाये हुए शुल्क का तथा तत्तत् कार्यों में नियुक्त कवि, ज्योतिषिक्, आभिचारक (जादू-टोना वाले) आदि को दिया गया