मध्य हिमालय का प्राचीन नगर बागेश्वर वैदिक नामकरण वाली गोमती और सरयू के संगम पर स्थित है। यह प्राचीन नगर समुद्र सतह से 935 मीटर की ऊँचाई तथा 29° 50’ 16.8’’ उत्तरी अक्षांश और 79° 46’ 15.6’’ पूर्वी देशांतर रेखा पर स्थित है। सड़क मार्ग से यह संगम स्थल मल्लों की एक शाखा बम राजवंश की राजधानी सोर (पिथौरागढ़) से थल-चौकोड़ी होते हुए 130 किमी, पूर्ववर्ती चंदों की राजधानी चंपावत से गंगोलीहाट-चौकोड़ी होते हुए 177 किमी, कत्यूरी राजवंश की राजधानी बैजनाथ से 21 किमी, पौरव वंश की राजधानी ब्रह्मपुर (चौखुटिया, पश्चिमी रामगंगा घाटी) से द्वाराहाट-गरेछीना होते हुए 86 किमी, परवर्ती चंदों की राजधानी अल्मोड़ा से क्रमशः ताकुला और सोमेश्वर-गरेछीना होते हुए 73 किमी, 76 किमी तथा कुमाऊँ के द्वार काठगोदाम से अल्मोड़ा होते हुए 154 किमी दूर है।
सरयू-
सरयू मध्य हिमालय की पवित्र नदी है। ‘‘ऋषि गलव ने कहा जिस किसी ने भी अपने समस्त पापों का प्रायश्चित करना हो वह सरयू में स्नान करे।’’ कुमाउनी में एक कहावत भी है- ‘‘देवता देखण जागेश्वर, गंगा नाणी बागेश्वर।’’ जे0एच0 बैटन 1841 ई. की रिपोर्ट में लिखता है- ‘‘जब हरिद्वार में गंगा का पुण्य समाप्त हो जायेगा तो उनका यश शारदा को मिलेगा और सरयू तट पर स्थित बागेश्वर हरिद्वार के समान महात्म्य की प्राप्ति करेगा।’’ स्कन्द पुराण के मानसखण्ड के अध्याय 74 में सरयू का उल्लेख मिलता है। ऋषि वशिष्ठ ने भगवान विष्णु की स्तुति कर, मानस क्षेत्र से लायी गयी पुण्य नदी सरयू को लोक हित की कामना से प्रवाहित किया था।
‘‘वसिष्ठोऽपि महाभागाः प्राप्य तां सरयूं शुभाम्
मानवानां हितार्थाय वाहयामास तां नदीम् ।’’ (74/94)
इस नदी का उद्गम क्षेत्र ‘सरयूमूल’ भी कहलाता है, जो बागेश्वर जनपद के झूनी गांव (कपकोट तहसील) के निकट स्थित है। सरयूमूल को स्थानीय लोग सयूरगुल और ‘सहस्रधारा’ भी कहते हैं। ‘सहस्रधारा’ संस्कृत का स्त्रीलिंग शब्द है, जिसका अर्थ- ‘‘देवताओं को स्नान कराने का हजार छिद्रों का एक पात्र।’’ सहस्रधारा की भाँति झूनी के उत्तरी पर्वतीय भाग से निकली लघु धाराओं से सरयू नदी का उद्भव हुआ है। सरयूमूल के उत्तरी घाटी में स्थित ‘द्वाली’ नामक स्थान पर पिण्डारी और कफनी हिमनद से निकलने वाली लघु जल धाराओं का संगम होता है। कफनी हिमनद से द्वाली मध्य तक की दक्षिणी पर्वत श्रेणी, जो आकृति में अर्द्ध-चन्द्राकार है, के दक्षिण-पश्चिमी पनढाल में ही सरयू नदी का आरम्भिक जलागम क्षेत्र है।
बागेश्वर से झूनी तक यात्रा के संबंध में उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में हिमालयन गजेटियर के लेखक एडविन थॉमस एटकिंसन लिखते हैं- ‘‘जिला मुख्यालय से लगभग 55 कि.मी. की दूरी पर कपकोट तहसील का अंतिम गांव झूनी है। इस गांव के सामने की पहाड़ी से सरयू नदी उद्गमित है। सरयू के उद्गम स्थल तक पहुँचने के लिए 40 किमी मुनारगांव तक सड़क मार्ग है। अपै्रल माह के बैशाख पूर्णिमा को सरयू मंदिर में भव्य मेला लगता है।’’
लगभग 138 वर्ष पहले ब्रिटिश शासन काल में एडविन थॉमस एटकिंसन ने इस नदी के प्रवाह और जलागम क्षेत्र का वर्णन इस प्रकार से किया है-
‘‘इसका स्रोत 80° 06’ 50’’ अक्षांश और 30° 01’ 30’’ देशांतर पूर्व में एक घाटी में है जिसमें झुंडी गांव बसा है। स्रोत से आठ मील दूर सुपी में इसकी चौड़ाई पंद्रह गज है तथा मई महीने में यहाँ केवल दो फीट पानी रहता है। सुपी से कुछ मील नीचे नदी का प्रवाह-विस्तार संकरा होकर बारह गज रह जाता है और गहराई चौबीस इंच है तथा कुछ और नीचे या स्रोत से पंद्रह मील दूर यह पैंतालीस गज चौड़ी और सत्ताईस इंच गहरी है। कई छोटी-मोटी सरिताओं को समेटते हुए 29° 59’ अक्षांश और 77° 59’ देशांतर पर तल्ला दानपुर पट्टी में प्रवेश करती है। यहाँ इसके दायें किनारे से कनलगाड़ मिलती है और कुछ दूर नीचे की ओर यानी स्रोत से इकत्तीस मील दूर पुंगरगाड़ इसमें समाहित होती है। करीब एक मील नीचे मल्ला कत्यूर पट्टी से आ रही लहोरगाड़ इसके दायें किनारे से मिलती है। यहाँ से दक्षिण-पूर्व को मुड़कर चार मील नीचे बागेश्वर पहुँचती है जहाँ समुद्र सतह से 3,143 फीट की ऊँचाई पर गुमती या गोमती नदी इसके दायें किनारे से मिलती है।
सरयू के गोमती के संगम के पैंतीस मील नीचे यह दायें किनारे से पनार नदी को साथ लेती है तथा तीन मील और नीचे रामेश्वर में रामगंगा पूर्वी को अपने बायें किनारे से समेटती है। यह संगम 29° 31’ 25’’ अक्षांश और 80° 09’ 40’’ देशांतर पर समुद्र-सतह से 1,500 फीट की ऊँचाई पर है। रामेश्वर से आगे यह सोर और काली कुमाऊँ परगनों के बीच दक्षिण-पूर्व की रुख रखते हुए सीमा तय करती है तथा बारह मील के बाद पछेश्वर में काली नदी के दायें किनारे से मिलती है। यह संगम 29° 27’ उत्तरी अक्षांश और 80° 18’ पूर्वी देशांतर पर है। बागेश्वर के नीचे सरयू में बड़ी मछली गूंच या सद्य-जल शार्क पाई जाती है। कहा जाता है कि इस मछली की लम्बाई छह फीट तक तथा दांत कुत्ते की तरह होते हैं।’’
गोमती-
गुमती या गोमती के संबंध में एटकिंसन ने लिखा- ‘‘गुमती या गोमती नदी जिसकी एक शाखा ब्रिटिश-गढ़वाल में बधाण परगने की पिण्डरवार पट्टी से निकलती है और दक्षिणी शाखा कुमाऊँ में दानपुर परगने की मल्ला कत्यूर पट्टी में विरचुवा चोटियों (8042 और 7427 फीट ऊँची) तथा गडवलबूंगा (6950 फीट) से निकलती है। ये शाखाएं बैजनाथ के नीचे 29° 54’ 24’’ अक्षांश और 79° 39’ 28’’ देशांतर पर मिलतीं हैं और कत्यूर घाटी से बहते हुए 29° 50’ 15’’ अक्षांश और 79° 48’ 52’’ देशांतर पर बागेश्वर में सरयू के दायें किनारे से मिलती है। दोनों नदियों का संगम समुद्र-सतह से 3143 फीट की ऊँचाई पर होता है।
गोमती-सरयू संगम के अंतस्थ भाग में प्राचीन मंदिरों का एक समूह है, जिसमें बागनाथ मंदिर सबसे विशाल है। इस प्राचीन मंदिर के कारण इस संगम स्थल का नाम बागेश्वर हो़ गया। प्रस्तर शिलाओं से निर्मित इस विशाल मंदिर के दक्षिण में गोमती और पूर्व दिशा में सरयू नदी प्रवाहित है। बागनाथ को ‘स्वयंभू’ देवता कहा जाता है। ‘हिमालयन गजेटियर’ के लेखक एडविन थॉमस एटकिंसन लिखते हैं- ’’बागेश्वर नाम यहाँ स्थित मंदिर वाक्-ईश्वर यानी आवाज के भगवान से लिया गया है। कुछ लोगों का मानना है कि यह नाम व्याघ्रेश्वर यानी बाघ देवता से लिया गया है।’’
बागेश्वर का नामकरण-
बागेश्वर के नामकरण की पृष्ठभूमि में दो पौराणिक कथाएं हैं, जिनमें प्रथम कथा इस प्रकार से है- ‘‘सरयू व गोमती के संगम में नील पर्वत है, जिसमें देवता, सिद्ध, गंधर्व व अप्सराएं रहती हैं। ज्यों ही महादेव व पार्वती यहाँ आये, तो आकाशवाणी हुई। शिव की प्रशंसा की गई। देवगण आये। उन्होंने कहा कि आकाशवाणी में शिव की प्रशंसा हुई, इसलिए यह स्थान बागीश्वर (वाक् ᐩ ईश्वर = बागीश्वर) कहलावेगा।’’
सरयू-गोमती संगम स्थल के नामकरण की द्वितीय पौराणिक कथा इस प्रकार से है- ‘‘नील पर्वत में ऋषि मारकण्डेय ने तपस्या की थी। जब वह वहाँ तपस्या में बैठे थे, ऋषि वशिष्ठ उत्तर से सरयू को लाये। जब सरयू ने मारकण्डेय को देखा, तो वह यहाँ रुक गई और एक तालाब के रूप में परिवर्तित हो गई। जब वशिष्ठ ने देखा कि मारकण्डेय की तपस्या के कारण सरयू आगे नहीं बढ़ती, तो वह शिव के पास गये कि रास्ता खोल दें। शिव व पार्वती ने आपस में मंत्रणा की। पार्वती गाय बनकर मारकण्डेय के पास चुगने लगीं। शिव ने व्याघ्र का रूप धारण कर पार्वती रूपी गाय पर झपटना चाहा। मारकण्डेय ऋषि यह देखकर गाय की रक्षा को दौड़े और बाघ को भगाने लगे। जब ऋषि वहाँ से उठे, तो सरयू को रास्ता मिल गया और वह नीचे को बहने लगी। जब शिव व पार्वती ने सरयू के बहने का शब्द सुना, तो उन्होंने अपना पूर्ण-रूप धारण किया। तब मारकण्डेय ने शिव की स्तुति की और कहा- तुम्हारा नाम व्याघ्रेश्वर भी है (व्याघ्र ᐩ ईश्वर = व्याघ्रों का ईश्वर)’’
बागेश्वर क्षेत्र का इतिहास-
ऐतिहासिक दृष्टि से बागेश्वर क्षेत्र उत्तराखण्ड के प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास का साक्षी रहा है। कत्यूरी कालीन मंदिरों के पृथक-पृथक समूह बागेश्वर नगर के अतिरिक्त निकटवर्ती बैजनाथ, मोहली, मणखेत में हजारों वर्षों से सुरक्षित हैं। बैजनाथ में पन्द्रह मंदिरों का समूह है। यह स्थल कत्यूरी राज्य की प्राचीन राजधानी के रूप में चिह्नित है, जिसे विद्वान कार्तिकेयपुर भी कहते हैं। मोहली में भी कत्यूरी शैली में निर्मित तीन मंदिरों का समूह है। यह गांव वर्तमान में दुग-नाकुरी तहसील के नाकुरी क्षेत्र में स्थित है।
विद्वान एकमत हैं कि बागनाथ मंदिर को कत्यूरी राजाओं ने निर्मित किया था। इस मंदिर से एक प्राचीन शिलालेख प्राप्त हुआ, जिसमें इस क्षेत्र को जयकुलभुक्ति कहा गया है। इस शिला पर तीन पृथक-पृथक राजवंशों की वंशावली उत्कीर्ण थी, जिन्हें विद्वान कत्यूरी वंश से संबद्ध करते हैं। इस शिलालेख में कार्तिकेयपुर के महान राजा ललितशूरदेव की वंशावली भी उल्कीर्ण है, जो उनके पुत्र भूदेवदेव ने उत्कीर्ण करवायी थी। कत्यूरी काल के पश्चात चंद काल में भी बागेश्वर मंदिर, मध्य हिमालय क्षेत्र का महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल था। इस मंदिर समूह के सबसे विशाल मंदिर का जीर्णोद्धार चंद राजा लक्ष्मीचंद (1597-1621 ई.) ने सत्रहवीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में करवाया था। चंद राजाओं ने ताम्रपत्रों के माध्यम से इस प्राचीन मंदिर को पूजा-पाठ व्यवस्था हेतु अनेक गांव प्रदान किये। ब्रिटिश काल में असहयोग आन्दोलन के दौरान बागेश्वर नगर ‘कुलीबेगार’ आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र था, जहाँ उत्तराखण्ड के विशाल जनमानस ने उत्तरायण पर्व पर सरयू के जल को हाथ में ले, कुलीबेगार न देने की प्रतिज्ञा की थी।
वर्तमान में बागेश्वर उत्तराखण्ड का एक जनपद है, जिसका गठन 18 सितम्बर, 1997 ई. को हुआ था। इस जनपद के उत्तर-पूर्व में पिथौरागढ़, दक्षिण में अल्मोड़ा तथा उत्तर-पश्चिम में चमोली जनपद है। वस्तुतः यह जनपद उत्तराखण्ड के तीन जनपदों से घिरा हुआ है। यहाँ के प्रमुख पर्यटक स्थलों में कौसानी और पिण्डर-कफनी हिमनद विशेष प्रसिद्ध हैं। सन् 1929 के ग्रीष्म ऋतु में महात्मा गांधी ने कौसानी में बारह दिनों का प्रवास किया था, जहाँ उनकी स्मृति में अनाशक्ति आश्रम आज भी पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है। पिण्डर हिमनद ही पिण्डर नदी का उद्गम स्थल है। यह नदी कुमाऊँ की एक मात्र नदी है, जो अलकनंदा की एक सहायक नदी है। पंच प्रयागों में एक कर्णप्रयाग नामक स्थान पर पिण्डर नदी अलकनंदा में समाहित होती है। पिण्डर-कफनी हिमनद के निकट ही ‘नंदाकोट’ पर्वत है, जिसके उत्तर-पश्चिम में उत्तराखण्ड का सर्वोच्च पर्वत शिखर ‘नंदादेवी’ है। नंदादेवी ही प्राचीन कार्तिकेयपुर राज्य की कुलदेवी थी, जिन्हें ताम्रपत्रों में ‘भगवती नंदा’ कहा गया।