विष्णुवर्मन का ताम्रपत्र पौरव वंश और ब्रह्मपुर के इतिहास पर प्रकाश डालता है। इस राजा के वंशजो का शासन ब्रह्मपुर राज्य में लगभग छठी शताब्दी के आस पास था। इस वंश का इतिहास केवल ताम्रपत्रों में ही समाहित था। ये ताम्रपत्र गढ़वाल सीमावर्ती अल्मोड़ा जनपद के स्याल्दे तहसील के तालेश्वर गांव से एक खेत की प्राचीर निर्माण हेतु की गई खुदाई में प्राप्त हुए थे, जो द्युतिवर्मन और विष्णुवर्मन नामक राजाओं के थे। इन दोनों शासकों के ताम्रपत्रों में राज्य एवं राजधानी का नाम क्रमशः पर्वताकार और ब्रह्मपुर उत्कीर्ण है।
विष्णुवर्मन का ताम्रपत्र सन् 1915 ई. में प्राप्त हो चुका था। लेकिन सन् 1960 ई. के आस पास ही यह ताम्रपत्र प्रकाश में आ पाया। यदि यह ताम्रपत्र सन् 1936 ई. से पूर्व प्रकाश में आ चुका होता, तो ‘कुमाऊँ का इतिहास’ नामक पुस्तक में इस राजवंश का उल्लेख पंडित बद्रीदत्त पाण्डे अवश्य करते।
विष्णुवर्मन का ताम्रपत्र ब्रह्मपुर और पर्वताकार राज्य के संबंध में अनेक तथ्य उपलब्ध कराता है। यह ताम्रपत्र ब्रह्मपुर को पुरों में श्रेष्ठ तथा अग्निवर्मन, द्युतिवर्मन और विष्णुवर्मन को सोमदिवाकर/पौरव वंशीय घोषित करता है। अभिलेखीय साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि पौरव वंश में कुल पांच शासक हुए, जिनमें विष्णुवर्मन का क्रम पंचम था। इस वंश के ज्ञात पांच शासक क्रमशः विष्णुवर्मन, वृषवर्मन, अग्निवर्मन, द्युतिवर्मन और विष्णुवर्मन थे।
पौरव शासक विष्णुवर्मन का ताम्रपत्र मूलतः ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है, जिसका संस्कृत अनुवाद डॉ. शिव प्रसाद डबराल की पुस्तक ‘उत्तराखण्ड अभिलेख एवं मुद्रा’ में प्रकाशित हो चुका है। इस पुस्तक में पौरव वंश के अंतिम ज्ञात शासक विष्णुवर्मन के ताम्रपत्र की तेरहवीं से अट्ठाईसवीं पंक्तियां इस प्रकार से उल्लेखित हैं-
13- पचयाय तिपादितं यत (त्र) स्तम्भसंकटिकायां वज्रस्थलक्षेत्र कुल्य वापं तत्पूर्व्वेण हुडुक्क सूनाक्षेत्रं तत्समीपे मावलक क्षेत्रं-
14- खारिवापं समधिकं सजंगलम् साधुतुंगकग्राम तले क्षेत्त्राष्ट (क्षेत्रमष्ट-) द्रोण वापं पाटलिकारामके चम्पक तोली देवक्यकर्ण्ण काश्च-
15- गोमतिसार्यां व्र (ब्र)ह्मेश्वर देवकुल समीपे पट्टवायक दत्तिर्म्मध्यमारक क्षेत्र चतुर्द्दश द्रोण वापं सेम्मक क्षेत्रं चतुर्द्दश द्रोण वापं-
16- कपिलेश्वर नामधेय क्षेत्रकुल्यवापं लवणोदके नन्दिकेरक क्षेत्र षड्द्रोणवापं भोगिक गेल्लणण्णाक (गेल्लण अष्णक) भ्रातृ-दत्ते क्षेत्रसूने द्वे-
17- खारिवापं गभीरपल्लिकायां डडुवकजंगल कुल्यवापं देवक्य तोली पंचद्रोणवापं मध्यमपुरक परस्ताद् रजकस्थलक्षेत्र षड् द्रोण-
18- वापं देवक्यानूप क्षेत्र खारि वाप त्त्रय मधिकं वासोदकं जंगलम् तदुपरि खट्टलिका तुलाकण्ठकयक्ष समीपे नरकक्षेत्रम्
19- भुष्टिका क्षेत्त्रमष्ठद्रोणवापम् तत्प्रापि क्षेत्र कर्ण्णकम् नदीतटे भृष्टक क्षेत्त्रं पंचद्रोणवापम् पूर्व्वेण वीजकरणी वड्र क्षेत्त्राष्ट द्रोण-
20- वापम् पर्व्वतार क्षेत्र खारी वापम् सकुल्यम् तत्समीपे जंगल खोह्लिका खट्टलिकाक्षेत्त्रं सजंलं नवद्रोण वापम् देवक्य क्षेत्त्राष्ट द्रोण वापम्
21- स्कम्भारतोली निश्चिता देव्या (व्य) धस्तात् केदारकुल्यवापम् देव्खल ग्रामके केदार द्वि-द्रोण वापिका शुण्ठीनावानूपे सेम्मक क्षेत्त्रम्
22- मधुफल मूलक क्षेत्त्रम् खट्टलिका क्षेत्त्रंज च्छिद्र गर्त्तायाम् नागिल क्षत्त्रकुल्य वापम् सजंगलम् अन्ध्रलकर्ण्णकास्त्रयः जरोलक केदा-
23- रम् सेम्महिका क्षेत्रम् व्यासोष्ठिनी जगंलम् तत्प्रापि डड्डवर्क पर्व्वते च भोगिक बराहदत्त प्रत्यया भूमयो व (ब)हव्यः कार्तिकेयपुरे
24- निम्बसार्यां व (ब) लाध्यक्ष लवचन्द्र सकाशाद् दिविरपति धनदत्तेनो पक्क्रीतम् समूल समात्रकमर्द्धपंचभिः सुवर्ण्णैंः श्वेतो (ता) क्षेत्त्र पंचद्रोण-
25- वापम् दूर्व्वाषण्डके च अनेनैव दिविरपतिनोपक्क्रीतं कायस्थ णण्ण्कसकाशात्समूल समात्त्रकमष्टाभिः सुवर्ण्णैः वेतस-
26- कुल्यवाप नामधेयं सौ (सो) दक जगंलमावसथ स्याग्रतो देवकुलिकायां वामन स्वामि पादानां निवेदनक निमित्तमेवमाज्ञापिते
27- क्रिष्णहयोभि (कृष्णाहयो हि) जायन्ते य आक्षेपं कुर्यात्स पंचमहापातक संयुक्तः स्यादुक्तंच भगवता व्यासेन…..विन्ध्याटवि ष्वयोयातु शुष्क कोटर वासिनः
28- दूतकः प्रमातार वराहदत्तः लिखितमिदं दिविरपति धनदत्तेन उक्ती (उत्की) र्ण्णंच सौवणि्र्ंणकानन्तेन- रा.सं. 20 मार्ग्ग दि. 5
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विष्णुवर्मन का ताम्रपत्र : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन :-
क्षेत्र-
विष्णुवर्मन के ताम्रपत्र की तेरहवीं पंक्ति में उल्लेखित ‘क्षेत्र’ एक महत्वपूर्ण शब्द है। इस पंक्ति में तीन क्षेत्रों क्रमशः स्तम्भसंकटिकायां वज्रस्थल, हुडुक्क सूना और मावलक क्षेत्र का उल्लेख किया गया है। इनमें से स्तम्भसंकटिकायां वज्रस्थल क्षेत्र एक सिंचित भूमि क्षेत्र था। सिंचित भूमि के लिए इस पंक्ति में कुल्य वापं शब्द प्रयुक्त किया गया है। तेरहवीं पंक्ति के अनुसार स्तम्भसंकटिकायां वज्रस्थल क्षेत्र के पूर्व में हुडुक्क सूना तथा इसके समीप ही मावलक क्षेत्र स्थित था, जहाँ भूमि पैमाइश हेतु खारि वापं का प्रयोग किया जाता था। खारि वापं संभवतः घास वाली भूमि थी। संस्कृत में क्षेत्र का अर्थ ‘खेत’ होता है।
इस ताम्रपत्र की ग्यारह पंक्तियों में कुल 22 बार ‘क्षेत्र’ का उल्लेख किया गया है। तेरहवीं पंक्ति के अतिरिक्त चौदहवें से तेईसवीं पंक्ति तक निम्नलिखित क्षेत्रों का उल्लेख किया गया है-
1- चौदहवीं पंक्ति में एक क्षेत्र समधिक सजंगलम् साधुतुंगक ग्राम तले का उल्लेख।
2- पन्द्रहवीं पंक्ति में क्रमशः दो क्षेत्रों पट्टवायक दत्तिर्म्मध्यमारक और सेम्मक का उल्लेख।
3- सोहलवीं पंक्ति में क्रमशः तीन क्षेत्रों कपिलेश्वर नामधेय, लवणोदके नन्दिकेरक और गेल्लणण्णाक (गेल्लण अष्णक) भ्रातृ-दत्ते क्षेत्र का उल्लेख।
4- सत्रहवीं पंक्ति में एक क्षेत्र मध्यमपुरक परस्ताद् रजकस्थल का उल्लेख।
5- अट्ठारहवीं पंक्ति में दो क्षेत्रों देवक्यानूप और खट्टलिका तुलाकण्ठकयक्ष समीपे नरक का उल्लेख।
6- उन्नीसवीं पंक्ति में क्रमशः चार क्षेत्रों भुष्टिका, तत्प्रापि, कर्ण्णकम् नदीतटे भृष्टक और वीजकरणी वड्र का उल्लेख।
7- बीसवीं पंक्ति में क्रमशः तीन क्षेत्रों पर्व्वतार, खोह्लिका खट्टलिका और देवक्य का उल्लेख।
8- इक्कीसवीं पंक्ति में एक क्षेत्र शुण्ठीनावानूपे सेम्मक का उल्लेख।
9- बाईसवीं पंक्ति में क्रमशः तीन क्षेत्रों मधुफल मूलक, खट्टलिका और गर्त्तायाम् नागिल का उल्लेख।
10- तेईसवीं पंक्ति में एक क्षेत्र जरोलक केदारम् सेम्महिका का उल्लेख।
भूमि पैमाइश-
प्राचीन उत्तराखण्ड के अभिलेखों में यह एक मात्र अभिलेख है, जो भूमि के विभिन्न प्रकारों की माप को उसके बीजानुपात से संबद्ध करता है। कर या अकर के सिद्धांतों को लागू करने हेतु राज्य द्वारा भूमि की माप करवाना ही भूमि पैमाइश कहलाता था। ब्रह्मपुर राज्य में ’प्रमातार’ नामक पदाधिकारी भूमि पैमाइश का कार्य करता था। राजा विष्णुवर्मन का प्रमातार वराहदत्त था।
राज्य में भूमि माप हेतु तीन पैमाने प्रचलन में थे, जिनमें द्रोणवापं सबसे अधिक प्रचलित भूमि पैमाइश पैमाना था। छठी शताब्दी के आस पास ब्रह्मपुर में पौरव वंश ने एक सुसंगठित और प्रगतिशील राजसत्ता को स्थापित करने में सफलता प्राप्त की थी, जिसके कारणों में प्रमातार नामक राज्याधिकारी और राज्य की भूमि पैमाइश व्यवस्था सबसे महत्वपूर्ण थी।
पौरव शासक विष्णुवर्मन के पिता द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र में भूमि पैमाइश पैमाने का उल्लेख नहीं किया गया है। जबकि बागेश्वर शिलालेख के त्रिभुवनराजदेव से संबंधित लेखांश में चार स्थानों पर ’द्रोण’ पैमाने का उल्लेख किया गया है। त्रिभुवनराजदेव को विद्वान ‘खस’ राजा कहते हैं। चमोली के पाण्डुकेश्वर से प्राप्त कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के ताम्रपत्रों से भी भूमि पैमाइश पैमाने का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। जबकि पाण्डुकेश्वर से ही प्राप्त सुभिक्षराजदेव के ताम्रपत्र में 24 स्थानों पर द्रोणवापं का उल्लेख किया गया है। इस ताम्रपत्र में कुल्यवापं के स्थान पर ’नालिकावापं’ का प्रयोग किया है। सुभिक्षराजदेव ने कार्तिकेयपुर के स्थान पर सुभिक्षुपुर से ताम्रपत्र निर्गत किया था। प्राचीन ब्रह्मपुर से कार्तिकेयपुर-सुभिक्षुपुर राज्य के कालखण्ड तक मध्य हिमालय क्षेत्र में ‘द्रोण’ एक प्रचलित भूमि पैमाइश पैमाना था। मध्य कालखण्ड में ’द्रोण’ पैमाने का साक्ष्य पंवार वंश (गढ़वाल) द्वारा निर्गत राजराजेश्वरी मंदिर ताम्रपत्र (सन् 1700 ई.) से भी प्राप्त होता है। जबकि समकालीन कुमाऊँ के चंद ताम्रपत्रों से भूमि पैमाइश हेतु द्रोण पैमाने के साक्ष्य प्राप्त नहीं होते हैं। चंद कालीन कुमाऊँ में ‘ज्यूला’ सर्वाधिक प्रयोग किये जाने वाला भूमि पैमाइश पैमाना था।
विष्णुवर्मन के ताम्रपत्र से स्पष्ट होता है कि ब्रह्मपुर राज्य में भूमि की पैमाइश तीन प्रकार- कुल्य, द्रोण, और खारी वापं से की जाती थी।
कुल्य वापं-
पौरव वंश के शासक विष्णुवर्मन के ताम्रपत्र की तेरहवीं पंक्ति में ‘‘स्तम्भसंकटिकायां वज्रस्थल क्षेत्र’’ हेतु ‘कुल्य वापं’ का प्रथम बार उल्लेख किया गया है। ‘कुल्य’ संस्कृत का पुल्लिंग शब्द है, जिसका अर्थ ‘अन्न मापने का एक पैमाना’ होता है। ‘वाप’ भी संस्कृत का पुल्लिंग शब्द है, जिसका अर्थ ‘बोने की क्रिया’, ‘खेत’, ‘बीज’ आदि होता है। अतः कुल्य वापं का शाब्दिक अर्थ ‘बीज बोने के आधार पर भूमि का मापन’ हो सकता है। ‘कुल्या’ संस्कृत का स्त्रीलिंग शब्द है, जिसका अर्थ ‘नहर’ या ‘छोटी नदी’ होता है।
पाण्डुकेश्वर से प्राप्त सुभिक्षराजदेव के ताम्रपत्र (नौवीं-दशवीं शताब्दी) से तीन पैमानों- द्रोणवापं, खारिवापं और नालिकावापं का उल्लेख प्राप्त होता है। जबकि पौरव शासक विष्णुवर्मन के ताम्रपत्र में नालिकावापं के स्थान पर कुल्यवापं का प्रयोग किया गया है। कुल्यवापं और नालिकावापं एक ही शब्द के पर्यायवाची हैं। कुमाउनी भाषा में खेत को सिंचित करने को कुल्याना कहते हैं। ’नाली’ या ’कूल’ खेत तक जल पहुँचाने की छोटी नहर को कहते हैं। तराई-भाबर में कूल के स्थान पर ‘गूल’ शब्द प्रयोग में है। अतः सिंचित कृषि भूमि मापन हेतु ताम्रपत्रों में कुल्यवापं या नालिकावापं का प्रयोग किया गया है।
ब्रह्मपुर राज्य से निर्गत इस ताम्रपत्र की तेरहवीं पंक्ति के अतिरिक्त चार अन्य पंक्तियों में भी कुल्य वापं का उल्लेख किया गया है, जो इस प्रकार से हैं-
1- सत्रहवीं पंक्ति में गभीरपल्लिकायां डडुवकजंगल के साथ कुल्यवापं का उल्लेख।
2- ईक्कीसवीं पंक्ति में देव्या (व्य) धस्तात् केदार कुल्य वापम् का उल्लेख।
3- बाईसवीं पंक्ति में गर्त्तायाम् नागिल क्षेत्र के साथ कुल्य वापम् का उल्लेख।
4- छब्बीसवीं पंक्ति का आरंभिक शब्द कुल्यवाप है, जो पच्चीसवीं पंक्ति के अंतिम तीन शब्दों से इस प्रकार अभिन्न है- समात्त्रकमष्टाभिः सुवर्ण्णैः वेतस- कुल्यवापं।
द्रोण वापं-
विष्णुवर्मन के ताम्रपत्र की चौदहवीं पंक्ति में ‘‘साधुतुंगकग्राम तले क्षेत्त्राष्ट द्रोण वापं’’ का उल्लेख किया गया है। ‘द्रोण’ संस्कृत का पुल्लिंग शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘लकड़ी का एक कलश,’ (जिसमें वैदिक काल में सोम रखा जाता था), ‘कठवत’, ‘एक प्राचीन माप’, ‘पत्ते का दोना’ आदि होता है। द्रोण का स्त्रीलिंग शब्द ‘द्रोणी’ होता है, जिसका अर्थ ‘दो पर्वतों के मध्य की भूमि’ होता है। अतः ब्रह्मपुर राज्य के पर्वतीय क्षेत्रां में दो पर्वतों के मध्य भूमि की पैमाइश हेतु द्रोण वापं का प्रयोग किया जाता था। डॉ. शिवप्रसाद डबराल लिखते हैं- ‘‘द्रोणी- दून, पर्वतों के मध्य चौरस उपत्यका।’’ अर्थात दो पर्वतों के मध्य विशाल चौरस भू-भाग को द्रोणी कह सकते हैं।
चौदहवीं पंक्ति के अतिरिक्त विष्णुवर्मन के ताम्रपत्र की निम्नलिखित पंक्ति में द्रोण वापं का उल्लेख प्राप्त होता है-
1- पन्द्रहवीं पंक्ति में गोमतिसार्या ब्रह्मेश्वर देवकुल समीप पट्टवायक दत्तिर्म्मध्यमारक क्षेत्र में चौदह द्रोण वापं और सेम्मक क्षेत्र में चौदह द्रोण वापं का उल्लेख।
2- सोलहवीं पंक्ति में लवणोदक नन्दिकेरक क्षेत्र में छ‘ द्रोणवापं का उल्लेख।
3- सत्रहवीं पंक्ति में देवक्य तोली में पांच द्रोणवापं और मध्यमपुरक परस्ताद् रजकस्थल क्षेत्र में छः द्रोण का उल्लेख।
4- उन्नीसवीं पंक्ति में भुष्टिका क्षेत्र में आठ द्रोण वापं, कर्ण्णकम् नदीतटे भृष्टक क्षे़त्र में पांच द्रोण वापम् और पूर्व वीजकरणी वड्र क्षेत्र में आठ द्रोण का उल्लेख।
5- बीसवीं पंक्ति में खोह्लिका खट्टलिका क्षेत्र में जल सहित नौव द्रोण वापम् और देवक्य क्षेत्र में आठ द्रोण वापम् का उल्लेख।
6- ईक्कीसवीं पंक्ति में ्देव्खल ग्राम के केदार में दो द्रोण वापं का उल्लेख।
7- चौबीसवीं पंक्ति में बलाध्यक्ष लवचन्द्र ने दिविरपति धनदत्त को पक्क्रीतम् समूल समात्रकमर्द्धपंचभिः सुवर्ण्णैंः श्वेतो (ता) क्षेत्र में पांच द्रोण का उल्लेख।
खारि वापं-
विष्णुवर्मन के ताम्रपत्र की चौदहवीं पंक्ति के आरंभ में खारिवापं शब्द का उल्लेख किया गया है। तेरहवीं पंक्ति के अंतिम दो शब्दों ‘मावलक क्षेत्र’ की भूमि पैमाइश खारिवापं में की गयी थी। इसी प्रकार सत्रहवीं पंक्ति के आरंभ में और अट्ठारहवीं पंक्ति में देवक्यानूप क्षेत्र हेतु खारि वापं का उल्लेख किया गया है। बीसवीं पंक्ति में पर्व्वतार क्षेत्र खारी वापम् का उल्लेख किया गया है।
डॉ. यशवंत सिंह कठोच के अनुसार- ’’1 दोण = 16 नाली, तथा 1 खार = 20 दोण।’’ जबकि डॉ. शिवप्रसाद डबराल के अनुसार-
’’द्रोणवापम्- जिस खेत में द्रोण अर्थात 16 नाली, 32 सेर बीज बोया जावे
खारिवापम्- जिस खेत में, खारी अर्थात 20 द्रोण बीज बोया जावे।
कुल्यवापम् -संभवतः जिसमें 8 द्रोण बीज बोया जावे।’’
दोनों ही विद्वान/इतिहासकार प्राचीन भूमि पैमाइश पैमाने के संबंध में एक मत है। कार्तिकेयपुर नरेश पद्मटदेव के पुत्र सुभिक्षराजदेव के पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्र में 6 नालिकावापं, 20 द्रोणवापं और 4 खारिवापं का उल्लेख किया गया है। यदि इतिहासकारों के तथ्य- 20 द्रोणवापं बराबर 1 खारिवापं को मान्य करें तो, इस ताम्रपत्र में 20 द्रोणवापं के स्थान पर 1 खारिवापं लिखना चाहिए था। लेकिन लिखा गया 20 द्रोणवापं। अतः स्पष्ट है कि भूमि पैमाइश के ये पैमाने भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमि जैसे- सिंचित भूमि हेतु कुल्य या नालिका वापं, असिंचित भूमि हेतु द्रोण वापं और बंजर भूमि हेतु खारि वापं प्रयुक्त किये जाते थे।
अन्य तथ्य-
भूमि पैमाइश के अतिरिक्त इस ताम्रपत्र में 14 वें पंक्ति में साधुतुंगक ग्राम और 21 वें पंक्ति में देव्खल ग्राम का उल्लेख किया गया है। 15 वें पंक्ति में गोमतिसार्यां में स्थित ब्रह्मेश्वर देवकुल का उल्लेख किया है। गोमतिसार्या को बागेश्वर जनपद की गरुड़ घाटी मान्य करें तो, आज का बैजनाथ धाम ही पौरव कालीन ब्रह्मेश्वर देवकुल था। गोमतिसार्या के अतिरिक्त इस ताम्रपत्र की 24 वें पंक्ति में उल्लेखित निम्बसार्या के साथ बलाध्यक्ष लवचन्द्र और दिविरपति धनदत्त का उल्लेख किया गया है।
सोलहवीं पंक्ति में कपिलेश्वर, 17 वें पंक्ति में गभीर पल्लिका तथा 19 वें पंक्ति में कर्णकम् नदी का उल्लेख किया गया है। तेईसवीं पंक्ति में व्यासोष्ठिनी नामक जंगल एवं डड्डवर्क पर्वत का उल्लेख राज्य कर्मचारी भोगिक बराहदत्त और कार्तिकेयपुर के साथ किया गया है। अतः स्पष्ट है कि व्यासोष्ठिनी नामक जंगल और डड्डवर्क नामक पर्वत कार्तिकेयपुर में थे, जहाँ नौवीं-दशवीं शताब्दी में ललितशूरदेव के वंशजों का शासन था।
पच्चीसवीं पंक्ति में दिविरपति के साथ कायस्थ और स्वर्ण का उल्लेख किया गया है। कायस्थ जाति की उत्तपत्ति भारत में गुप्त काल में हुई थी, जिनका लेखन कार्य ही मुख्य काम धन्धा था। गुप्त काल में लेखकों के विभागाध्यक्ष को दिविरपति कहते थे। इस ताम्रपत्र की 25 वीं पंक्ति में स्वर्ण का उल्लेख लेद-देन (मुद्रा) के रूप में किया गया है। अतः ब्रह्मपुर राज्य में गुप्त काल की भाँति स्वर्ण मुद्राएं प्रचलन में थीं। सत्ताईसवें पंक्ति में पंचमहापातक का उल्लेख श्लोक- ‘‘संयुक्तः स्यादुक्तंच भगवता व्यासेन…..विन्ध्याटवि ष्वयोयातु शुक कोटर वासिनः’’ के साथ किया गया है।
अट्ठाईसवीं पंक्ति में दूतक और प्रमातार नामक राज्य पदाधिकारी वराहदत्त के साथ ताम्रपत्र को लिखने वाले दिविरपति धनदत्त तथा टंकणकर्ता अनन्त का उल्लेख किया गया है। इस ताम्रपत्र को विष्णुवर्मन ने राज्य संवत् 20 वें वर्ष तथा मार्गशीर्ष माह के पांचवे दिन निर्गत किया था।