(सन्दर्भ- श्रीवास्तव कृष्ण चन्द्र, 2007, यूनाइटेड बुक डिपो, इलाहाबाद, प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, पृष्ठ- 500 से 501)
सिद्धम।। स्वस्ति(।।) महानौहस्त्यश्वजयस्कन्धावारात्कपित्थिकायाः महाराजश्रीनरवर्द्धनस्तस्यपुत्रस्तत्पादानुध्यातः श्रीवज्रिणीदेव्यामुत्पन्नः परमादित्यभक्तोमहाराजश्रीराज्यवर्द्धनस्तस्यपुत्रस्तत्पादानुध्यातःश्रीअप्सरोदेप्यामुत्पन्नःपरमादित्यभक्तो महाराजश्रीमदादित्यवर्द्धनस्तस्यपुत्रस्तत्पादानुध्यातः श्रीमहासेनगुप्तादेव्यामुत्पन्नश्चतुस्समुद्रातिक्क्रान्तकीर्तिः प्रतापानुरागोपनयान्यराजोवर्णाश्रमव्यवस्थापनप्रवृत्तचक्र एकचक्ररथ इव प्रजानामार्तिहरः परमादित्यभक्त परमभट्टारक महाराजाधिराजश्रीप्रभाकरवर्द्धनस्तस्यपुत्त्रस्तत्पादानुध्यातः तियशःप्रतानविच्छुरितसकलभुवनमण्डलः परिगृहीतधनदवरुणेन्द्र प्रभृतिलोकपालतेजाः सत्पथोपार्ज्जितानेकद्रविणभूमिप्रदानसंप्रीणितार्थिहृदयो(ऽ)तिशयतिपूर्व्वराजचरितो देव्याममलयशोमत्यां श्रीयशोमत्यामुत्पन्नः परमसौगतः सुगत इव परहितैकरतः परमभट्टारकमहाराजाधिराजश्रीराज्यवर्द्धनः।
राजानो युधि दुष्टवाजिन इव श्रीदेवगुप्तादयः
कृत्वा येन कशाप्रहारविमुखाः सर्वे समं संयताः।
उत्खाय द्विषतो विजित्य वसुधां कृत्वा प्रजानां प्रियं
प्राणनुज्झितवानरातिभवने सत्यानुरोधेन यः ।।1।।
तस्यानुजस्तत्पादानुध्यातः परममाहेश्वरो महेश्वर इव सर्वससत्वानुकम्पी परमभट्टारकमहाराजाधिराजश्रीहर्षः श्रावस्तीभुक्तौकुण्डधानीवैषयिकसोमकुण्डिकाग्रामे समुपगतां महासामन्तमहाराजदौस्साधसाधनिकप्रमातारराजस्थानीय कुमारामात्योपरिकविषयपतिभटचाटसेवकादीन्प्रतिवासि जानपदांश्चसमाज्ञापत्यस्तुः वः सम्विदितंमयंसोमकुण्डिकाग्रामों ब्राह्मणवामरथ्येनकूटशासनेन भुक्तक इति विचार्य यतस्तच्छासनं भंक्त्वा तस्मादाक्षिप्य च स्व स्वसीमापर्यन्तः सोद्रंग सर्वराजकुलाभाव्यप्रत्यायसमेतः सर्वपरिहृतपरिहारो विषयादुद्धृतपिण्डः पुत्त्रपौत्त्रानुगः चन्द्रार्कक्षितिसमकालीनो भूमिच्छिद्रन्याययेन मया पितुःपरमभट्टारकमहाराजाधिराजश्रीप्रभाकरवर्द्धनदेवस्य मातुः र्भट्टारिकामहादेवी श्रीयशोमतीदेव्याः ज्येष्ठभातृपरमभट्टारकमहाराजाधिराजश्रीराज्यवर्द्धनदेव पादनां च पुण्ययशोभिवृद्धये सावर्णि सगोत्त्रच्छन्दोगसब्रह्मचारिभट्टवालस्वामिविष्णुवृद्धसगोत्त्रच्छन्दोगब्रहवृचसब्रह्मचारिशिवदेवस्वामिभ्यां प्रतिग्रहधर्मेणाग्रहारत्वेन
प्रतिपादितः। विदित्वाभवद्भिः समनुमन्तव्यः प्रतिवासिजनपदैरप्याज्ञश्रवणविधेयैर्भूत्वा यथासमुचित तुल्यमेयभागभोग करहिरण्यादिप्रत्यायाः अनयोरेवोपनेयाः सेवोपस्थानं च करणीयमित्यपि च।।
अस्मत्कुलक्क्रममुदारमुदाहरद्भि
रन्यैश्च दानमिदमभ्यनुमोदनीयम् ।
लक्ष्यास्तडित्सलिलबुद्बुद्चंचलाया
दानं फलं परयशः परिपालनं च ।।2।।
कर्मणा मनसा वाचा कर्त्तव्यं प्राणिने हितं
हर्षेणैत्समाख्यातं धर्मार्ज्जनमनुत्तमम् ।3।
दुतको ऽ त्त्र महाप्रमातारमहासामन्तश्रीस्कन्दगुप्तः ।। महाक्षपटलाधिकरणधिकृतसामन्त महाराजेश्वरगुप्तसमादेशा च्चोत्कीर्ण गुज्जरेण ।। संवत् 20ᐩ5 मार्गशीष वदि 6।।
अनुवाद :-
ओम् स्वस्ति।। नाव, हस्ति तथा अश्वों से युक्त वध कपित्यिका के महान सैनिक शिविर से (यह घोषित किया गया)- एक महाराज नवर्धन हुए। उनकी रानी श्री वज्रिणी देवी से महाराज राज्यवर्धन उत्पन्न हुए जो उनके चरणों के ध्यान में रत तथा सूर्य के महान् भक्त थे। उनकी महिषी अप्सरो देवी से महाराज आदित्यवर्धन का जन्म हुआ जो अपने पिता के चरणों के ध्यान में रत तथा सूर्य के महान् भक्त थे। (उनकी महिषी) महासेनगुप्ता देवी से उनके एक पुत्र परमभट्टारक महाराजाधिराज प्रभाकरवर्धन उत्पन्न हुए। वे भी अपने पिता के ध्यान में रत तथा सूर्य के परम भक्त थे। इस महाराज प्रभाकरवर्धन का यश चारों समुद्रों का अतिक्रमण कर गया। उनके प्रताप एवं प्रेम के कारण दूसरे शासक उन्हें मस्तक झुकाते थे। इसी महाराज ने वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा हेतु अपना बल प्रयोग किया तथा सूर्य के समान प्रजा के दुखों का अंत किया। उनकी रानी निर्मल यश वाली यशोमती देवी से बुद्ध के परम भक्त तथा उन्हीं के समान परोपकारी परमभट्टारक महाराजाधिराज राज्यवर्धन उत्पन्न हुए। ये भी पिता के चरणों के ध्यान में रत तथा सूर्य के परम भक्त थे। इनकी उज्जवल कीर्ति के तंतु समस्त भुवनमण्डल में व्याप्त हो गये। उन्होंने कुवेर, वरुण, इन्द्र आदि लोकपालों के तेज को धारण कर सत्य एवं सन्मार्ग से संचित द्रव्य, भूमि आदि, याचकों को देखकर उनके हृदय को संतुष्ट किया। इनका चरित्र अपने पूर्वगामी शासकों से बढ़कर था।
जिस प्रकार दुष्ट घोड़े को चाबुक के प्रहार से नियंत्रित किया जाता है उसी प्रकार देवगुप्त आदि राजाओं को एक ही साथ युद्ध में दमन कर, अपने शत्रुओं को समूल नष्ट कर पृथ्वी को जीता तथा प्रजा का हित करते हुए सत्य का पालन करने के कारण शत्रु के भवन में प्राण त्याग दिया।
इन्हीं महाराजा राज्यवर्धन के अनुज, उनके चरणों के ध्यान में रत, परमशैव तथा शिव के समान प्राणीमात्र पर दया करने वाले परमभट्टारक महाराजाधिराज हर्ष ने श्रावस्ती भुक्ति में स्थित कुण्डधानी विषय के सोमकुण्डा ग्राम में एकत्रित महासामन्त, महाराज, दौस्साधसाधनिक, प्रमातार, राजस्थानीय, कुमारामात्य, उपरिक, विषयपति, चाट, भाट, सेवक तथा निवासियों के लिये प्रस्तुत राजाज्ञा प्रसारित की-
सर्वसाधारण को ज्ञात हो कि यह सोमकुण्डा नामक ग्राम, जिसे वामरथ्य ब्राह्मण ने अपने जाली दलील से अपने अधिकार में कर लिया था, उसके प्रमाण को रद्द कर अपने पिता परमभट्टारक महाराजाधिराजा प्रभाकरवर्धन, माता परमभट्टारिका महारानी यशोमती देवी तथा पूज्य अग्रज महाराज राज्यवर्धन के पुण्य एवं यश को बढ़ाने के लिए अपनी सीमा तक फैले हुए उपरोक्त ग्राम को-उसकी समस्त आय के साथ जिस पर राजवंश का अधिकार का, सभी प्रकार के भारों से मुक्त तथा अपने विषय से अलग कर पुत्र-पौत्रादि के लिए जब तक सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी स्थित रहे, तब तक भू छिन्द्र न्याय के अनुसार सावर्णि सगोत्रीय ब्रह्मचारी भट्ट वालस्वामी तथा विष्णुवृद्धि गोत्रीय ब्रह्मचारी शिवदेव स्वामी को अग्रहार रूप में मैंने दान दे दिया। ऐसा जानकर आप सब इसे स्वीकार करें तथा राजाज्ञा का पालन करते हुए तुल्य, मेय, भाग, भोग, कर, सुवर्ण आदि इन्हीं को प्रदान करें तथा इन्हीं की सेवा में रत हों। हमारे महान कुल के साथ संबंध का दावा करने वाले दूसरे जन भी इस दान को मान्यता दें। लक्ष्मी, जो जल के बुलबुले तथा विद्युत की भाँति चंचला है, का फल दान देने तथा दूसरों का हित करने में है। मन, वाणी एवं कर्म से सभी प्राणियां का कल्याण करना चाहिए। इसे हर्ष ने पुण्यार्जन का सबसे श्रेष्ठ साधन कहा है। इस संबंध में महाप्रमातार, महासामन्त श्री स्कन्दगुप्त दूतक है तथा महाक्षपट कार्यालय में सामन्त महाराज ईश्वरगुप्त की आज्ञा से गुर्जर द्वारा इसे अंकित कराया गया है। कार्तिक वदी 9 संवत् 22।