बड़ाऊँ या वर्तमान बेरीनाग तहसील के किरौली गांव से अस्कोट राजपरिवार के रजवार शासक आनन्दचंद रजवार का ताम्रपत्र प्राप्त हुआ, जिसे किरौली ताम्रपत्र कहा जाता है। रजवार शासक का किरौली ताम्रपत्र सर्वप्रथम सन् 1999 ई. में प्रकाश में आया था। यह ताम्रपत्र राजाधिराज आनन्द रजवार ने पूजा-पाठ हेतु केशव पंत को सन् 1597 ई. में भूमिदान हेतु प्रदान किया था। किरौली गांव बेरीनाग से 13 किलोमीटर दूर उडियारी-थल मार्ग (राज्य मार्ग-11) पर स्थित है, जिसके दक्षिण में काण्डे गांव है। राज्य मार्ग-11 इन दोनों गांवों की सीमा को निर्धारित करता है। पिथौरागढ़ जनपद में किरौली नाम वाले अन्य गांव भी हैं। इसलिए बड़ाऊँ के किरौली गांव को काण्डे-किरौली कहा जाता है। इस गांव के उत्तर में स्थित पर्वत श्रेणी को हिमालयन गजेटियर के लेखक एडविन थॉमस एटकिंसन ने ‘खमलेख’ कहा, जिसके एक शिखर पर पिंगलीनाग देवता का मंदिर स्थापित है। इस नाग देवता की पूजा-पाठ हेतु केशव पंत को किरौली गांव प्राप्त हुआ, जो 29° 49‘ 38‘‘ उत्तरी अक्षांश तथा 80° 03‘ 01‘‘ पूर्वी देशांतर रेखा पर स्थित है।
रजवार शासक का किरौली ताम्रपत्र मोहनचंद्र पंत पुत्र नेत्रदत्त पंत के किरौली गांव स्थित गृह से प्राप्त हुआ। यह ताम्रपत्र इतिहासकार मदनचन्द्र भट्ट के सहयोग से 24 मई, 1999 ई. के अमर उजाला, बरेली संस्करण में प्रकाशित हुआ था। ताम्र धातु यह फलक आयताकार है, जिसकी लम्बाई और चौड़ाई में लगभग 2 : 1 का अनुपात है। इस ताम्रपत्र के मुख्य पृष्ठ पर 10 पंक्तियों का लेख उत्कीर्ण है। एक अन्य लघु पंक्ति ताम्रपत्र के बायें पार्श्व में उत्कीर्ण की गयी है, जिसमें कुल 10 वर्ण हैं। मुख्य लेख के एक पंक्ति में लगभग 16 से 23 वर्ण उत्कीर्ण हैं। कुमाउनी भाषा में लिखित इस ताम्रपत्र में अधिकांश शब्द संस्कृत भाषा के हैं। परन्तु ज्यू (सम्मान सूचक शब्द), बगड (नदी तटवर्ती समतल भूमि), लेक (पर्वत भूमि) और इजर (पर्वतीय वन भूमि, जिसका उपयोग घास हेतु किया जाता था।) जैसे स्थानीय कुमाउनी शब्दों का प्रयोग इस ताम्रपत्र में किया गया है।
किरौली ताम्रपत्र का पंक्तिबद्ध पाठ-
श्री शाके 1519 मासानि वैशाख 7 गते
सोमवासो श्री राजाधिराज आनन्द चन्द रज्वार ज्यू बड़ा-
-उ माज केराउलि गाउ केशव पंत दीनु केशव पंत ले पाया
द..कै दिनु देउल पुज कि पाठि कै पायो केराउलि गाउ
लागदि गाउ बगड़ि लेक इजरि रौत कै पायो सर्वकर अक-
-रो सर्वदोष निर्दोष के यो साक्षि नराइण गुशाई पिरु गु-
-शाई खड़कु गुशाई चार चौधरिक पुरु बिष्ट शालि-
-वाण वाफिलो केद कार्की सुर्त्ताण कार्की ’’शुभम्’’
भूमि यः प्रतिगृहणाति यश्च भूमि प्रयछति।
उभौ तौ पुण्य कर्माणौ नियतं स्वर्गा गानिनौ।।
राज्य चिह्न के नीचे और ताम्रपत्र के बायें पार्श्व में उत्कीर्ण पंक्ति-
लिखिते वैकुण्ठ पंडितेन।।
किरौली ताम्रपत्र का विश्लेषण-
1- तिथि-
इस ताम्रपत्र की प्रथम पंक्ति में तिथि शाके में उत्कीर्ण है, जिसमें माह, वार और गते का उल्लेख किया गया है। कृष्ण या शुक्ल पक्ष तिथि के स्थान पर इस ताम्रपत्र में गते का उल्लेख किया गया है, जिसे कुमाउनी में ‘पैट’ भी कहते हैं। पैट या प्रविष्टि को सौर तिथि भी कहा जाता है। शाके 1519 या सन् 1597 ई. में निर्गत इस ताम्रपत्र में उल्लेखित माह बैशाख हिन्दू पंचांग का द्वितीय महीना है। ‘ड्रिकपंचांग डॉट कॉम’ के 1000 वर्षीय हिन्दू पंचांग की गणनानुसार यह ताम्रपत्र 21 अपै्रल, 1597 ई. में सोमवार को निर्गत किया गया था। इस दिन शंकराचार्य की 809 वीं जयंती थी। चंपावत के चंद और सीराकोट के मल्ल शासकों की भाँति इस ताम्रपत्र में तिथि को आरंभिक पंक्तियों में उत्कीर्ण किया गया। जबकि समकालीन कुमाऊँ के चंद राजा रुद्रचंद ने कार्तिकेयपुर से निर्गत ताम्रपत्रां का अनुकरण करते हुए तिथि को अभिलेखांत में उत्कीर्ण करने की परम्परा शुरू की थी। रुद्रचंद का सन् 1568 ई. का बूढ़ाकेदार ताम्रपत्र इस तथ्य की पुष्टि करता है।
2- गंगोली का इतिहास और राजाधिराज आनन्दचंद रजवार की पृष्ठभूमि-
तेरहवीं शताब्दी में गंगोली राज्य का उदय कत्यूरी राज्य के विभाजन के फलस्वरूप हुआ था। गंगोली राज्य के प्रथम राजा रामचंद्रदेव थे, जिनके वंश को उत्तर कत्यूरी कहा जाता है। इस राजा का प्रस्तर पट्ट अभिलेख गंगोलीहाट के जाह्नवी देवी नौला के वाह्य प्राचीर पर स्थापित है। चौदहवीं शताब्दी से नेपाल मूल के चंद वंशीय आठ शासकों ने लगभग 200 वर्ष तक गंगोली पर राज्य किया, जिन्हें मणकोटी कहा जाता है। अंतिम मणकोटी राजा नारायणचंद को पराजित कर चंद राजा कल्याणचंद ने सन् 1560 ई. में गंगोली को चंद राज्य में सम्मिलित कर लिया था। सन् 1581 ई. में कुमाऊँ के सबसे दुर्भेद्य दुर्ग सीराकोट को विजित करने में गंगोली की भूमिका महत्वपूर्ण थी, जहाँ के पुरुषोत्तम पंत के नेतृत्व में चंद सेना सीराकोट सहित सीरा राज्य को विजित करने में सफल हुई थी। रुद्रचंद ने इस महान विजय के साथ सरयू पूर्व का राज्य (गंगोली, सीरा और सोर) अस्कोट के रायपाल को सौंप दिया था।
अस्कोट-पाल वंश के रायपाल कत्यूरी वंश की एक शाखा से थे, जिनके मूल पुरुष अभयपाल थे। जबकि अभयपाल कत्यूरी राजा त्रिलोकपालदेव के पुत्र थे। अभयपाल के वंशजों ने कालान्तर में डोटी-मल्ल शासकों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। रुद्रचंद के समकालीन डोटी शासक हरिमल्ल की राजधानी डीडीहाट के निकट सीराकोट में थी, जहाँ अब मलयनाथ देवता का मंदिर है। डोटी राजा को पराजित करने हेतु चंद राजा रुद्रचंद ने अस्कोट-पाल वंश से वैवाहिक संबंध स्थापित किया। वैवाहिक संबंधों की प्रगाढ़ता के फलस्वरूप रुद्रचंद ने रायपाल को सन् 1581 ई. में सरयू पूर्व का राजा नियुक्त किया। लेकिन सन् 1588 ई. में उसकी हत्या ओझा ब्राह्मण ने कर दी थी। उस समय उसका पुत्र और उत्तराधिकारी महेन्द्रपाल नवजात बालक था। अतः राजपरिवार के कल्याणपाल रजवार को उसका संरक्षक नियुक्त किया गया और सरयू पूर्व के राज्य को राजपरिवार के सदस्यों में विभाजित कर दिया गया। इस विभाजन के फलस्वरूप गंगोली में रजवार शासन आरंभ हुआ, जिसकी पुष्टि गंगोली से प्राप्त ताम्रपत्र करते हैं।
गंगोली के प्रथम रजवार शासक इन्द्र रजवार थे, जिनका शासन काल लगभग नौ वर्ष का था। इन्द्र रजवार के पश्चात क्रमशः आनन्दचंद रजवार और पृथ्वीचंद रजवार गंगोली के शासक नियुक्त हुए, जिनका एक-एक ताम्रपत्र क्रमशः बेरीनाग के किरौली तथा अठिगांव से प्राप्त हुआ। इन दोनों ताम्रपत्रों से स्पष्ट होता है कि आनन्दचंद रजवार का शासन काल सन् 1597 से 1606 ई. तक कुल नौ वर्ष का रहा था। इन्द्र रजवार की भाँति आनन्द रजवार ने भी नौ वर्ष तक गंगोली में शासन किया था। रजवार शासकों की शासनावधि से स्पष्ट होता है कि अस्कोट-पाल राजपरिवार द्वारा रजवारों को एक निश्चित अवधि हेतु गंगोली के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया था।
3- नाग देवता के पुजारी केशव पंत-
किरौली ताम्रपत्र केशव पंत नामक ब्राह्मण ने प्राप्त किया था। वर्तमान में यह ताम्रपत्र गांव के भूतपूर्व प्रधान मोहनचन्द्र पंत के घर से सन् 1999 ई. को प्राप्त हुआ था। इनके पूर्वज ब्रिटिश काल में गांव के पधान हुआ करते थे। लेकिन ताम्रपत्र में उल्लेखित केशव पंत कौन थे ? इस संबंध में ताम्रपत्र से कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है। लेकिन यह ताम्रपत्र उन्हें देवता की पूजा-पाठ हेतु दिया गया था। देवता के नाम का उल्लेख भी ताम्रपत्र में नहीं किया गया है। परन्तु किरौली गांव के उत्तर में शिखर पर्वत पर पिंगलीनाग देवता का मंदिर स्थापित है। इस ताम्रपत्रानुसार किरौली के अतिरिक्त केशव पंत को लागदि गांव भी दान में दिया गया था। लागदि गांव को अब ‘लग’ गांव कहा जाता है, जो पुंगराऊँ घाटी में कालीनाग पर्वत की तलहटी में स्थित है। गंगोली के शासक आनन्दचंद रजवार ने केशव पंत को ऐसे दो गांव किरौली और लग को रौत में प्रदान किया, जिनके निकटवर्ती पर्वत पर क्रमशः पिंगलीनाग और कालीनाग फुटलिंग के रूप में स्थापित हैं।
केशव पंत के वंशज वर्तमान में भी पिंगलीनाग देवता के प्रधान पुजारी हैं। जबकि कालीनाग मंदिर के प्रधान पुजारी लग गांव के निकटवर्ती मण-भट्टी के पाठक ब्राह्मण हैं। संभवतः कालीनाग मंदिर के प्रधान पुजारी व्यवस्था में यह परिवर्तन चंद राजा उद्योतचंद (1678-1698) के शासन काल में या उनके गंगोली का राज्यपाल (1670-1678) पद पर रहते समय हुआ। उद्योतचंद प्रथम चंद राजा थे, जिन्होंने पाठक ब्राह्मणों को राज्य संरक्षण दिया था। किरौली और लग गांव में नाग देवता के अतिरिक्त एक समानता यह भी है कि किरौली का सीमावर्ती गांव जाख रावत और पुंगराऊँ घाटी के लग गांव में जयदेव अभिवादन वाले रावत क्षत्रिय निवास करते हैं, जो एक ही वंश मूल के हैं।
4-ताम्रपत्र साक्षी-
किरौली ताम्रपत्र अभिलेख साक्षियों की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। नराइण गुंशाई का साक्षियों में प्रथम स्थान पर उल्लेख किया गया है। नराइण गुशाई या नारायण गुसाईं चंद राजा रुद्रचंद के पौत्र और राजा लक्ष्मीचंद के पुत्र थे। नारायण गुसाईं के अतिरिक्त लक्ष्मीचंद के तीन और पुत्र थे, जिनमें दिलीपचंद और त्रिमलचंद कुमाऊँ के चंद सिंहासन पर आसित हुए। चौथे पुत्र नीला गुसाईं थे, जिनके पुत्र बाजबहादुरचंद कुमाऊँ के महान शासकों में एक थे। साक्षियों में द्वितीय और तृतीय स्थान पर क्रमशः पिरु गुसाईं और खड़कू गुसाईं का उल्लेख किया गया है। संभवतः ये दोनों रुद्रचंद के ज्येष्ठ पुत्र शक्ति गुसाईं के पुत्र थे।
स्थानीय जन इतिहास की दृष्टि से इस ताम्रपत्र के साक्षियों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण साक्षी थे- चार चौधरी। ये चार चौधरी- पुरु बिष्ट, शालिवाण बाफिला, केद कार्की और शुर्त्ताण कार्की थे। चम्पावत के चंद राजाओं द्वारा निर्गत ताम्रपत्रों से जहाँ ‘चार बूढ़ा’ नामक राज्य पद का उल्लेख प्राप्त होता है, वहीं रजवार शासकों के ताम्रपत्र में उल्लेखित ‘चार चौधरी’ मध्य कालीन गंगोली में ग्रामीण पंचायतीराज व्यवस्था को प्रमाणित करता है।
5- चार चौधरी और जातिगत बसावट-
किरौली ताम्रपत्र साक्षियों में ‘चार चौधरी’ गंगोली के ग्रामीण पंचायत व्यवस्था और जातिगत बसावट को समझने का महत्वपूर्ण स्रोत है। इन चार चौधरियों में से दो कार्की चौधरियां के वंशज आज भी किरौली के सीमावर्ती मनेत, चनौली, जगथली, गुरबूरानी और कालेटी आदि गांवों में निवास करते हैं। ये कार्की मुख्यतः ’मनेती’ ’चनौली’, ‘जगथली मल्ला घर’ और ‘जगथली तल्ला घर’ राठ में विभाजित हैं। किरौली के सीमावर्ती गांवों में उडयारी, काण्डा, जाख रावत, चनौली और मनेत हैं। मनेत और चनौली गांव, किरौली के दक्षिण-पूर्व सीमा पर स्थित हैं, जहाँ कार्की क्षत्रिय निवास करते हैं।
ताम्रपत्रीय किरौली गांव के बायें पार्श्व में जाख-रावत और दायें पार्श्व में उडयारी गांव है, जहाँ क्रमशः ’रावत’ तथा ’महरा’ क्षत्रिय निवास करते हैं। किरौली ताम्रपत्र साक्षियों में इन दो जातियों का उल्लेख न होने से स्पष्ट होता है कि इन्होंने इस ताम्रपत्र के निर्गतोपरांत जाख रावत और उडयारी गांव में आव्रजन किया था। जाख रावत क्षत्रियां में अपनी बसावट के संबंध में एक तथ्य प्रचलन में है कि उनका पूर्ववर्ती गांव गराऊँ था। वर्षों पूर्व उनके पूर्वजों से गराऊँ के पंत ब्राह्मणों ने चतुरता से जाख के स्थान पर गराऊँ गांव ले लिया था। गंगोली के दो गांवों से रावत और पंतों का पारस्परिक स्थानांतरण संभवतः सन् 1597 के उपरांत चंद राजा लक्ष्मीचंद के प्रधान वसुपंत के प्रभाव से हुआ था। सन् 1603 ई. में चंद राजा लक्ष्मीचंद गंगोली आये थे। संभवतः रावत और पंतों का बसावटीय स्थानान्तरण इसी वर्ष हुआ। स्थानीय लोगों के अनुसार उडयारी के ’महरा’ क्षत्रिय, धरमघर-कोटमन्या क्षेत्र (बास्ती) के महरा हैं, जिन्हें ब्रिटिश काल में कृषि क्षेत्र के विस्तार हेतु उडयारी में आव्रजन करवाया गया था।
किरौली ताम्रपत्र साक्षियों में चार चौधरी के अंतर्गत बिष्ट एवं बाफिला जाति का भी उल्लेख किया गया है, जो क्रमशः बेरीनाग तहसील के लालुका और थर्प गांव में निवास करते हैं। लालुका गांव, किरौली का दक्षिणी सीमावर्ती गांव है, जहाँ आज भी बिष्ट जाति के ब्राह्मण निवास करते हैं। थर्प गांव (पट्टी कालाशिला, बेरीनाग), किरौली से लगभग 4-5 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित है, जहाँ आज भी बाफिला क्षत्रिय निवास करते हैं। थर्प का शब्दार्थ ‘दुर्ग‘ होता है। इस गांव में दाणकोट तथा निकटवर्ती बाफिला गांव में पुंगेश्वर महादेव का ऐतिहासिक मंदिर है। थर्प के अतिरिक्त बडै़त, पड़ायत, कम्दीना आदि गांवों में भी बाफिला क्षत्रिय निवास करते हैं। अतः यह ताम्रपत्र ऐतिहासिक है, जिसमें उल्लेखित कार्की, बाफिला, बिष्ट और पंत आदि जातियां सैकड़ों वर्षों से मल्ला बड़ाऊँ क्षेत्र (बेरीनाग) में निवास कर रहे हैं।
6- ताम्रपत्रीय श्लोक और लेखक-
उत्तराखण्ड के ताम्रपत्रीय अभिलेखों की एक विशेषता यह थी कि राजा द्वारा दिये गये दान को संरक्षित करने हेतु संस्कृत श्लोकों का प्रयोग किया जाता था। दान भूमि को अन्य न छीन लें या सुरक्षा हेतु पाप-पुण्य पर आधारित संस्कृत श्लोकों को धर्म से संबद्ध कर ताम्रपत्रों में उत्कीर्ण किया जाता था। उत्तराखण्ड के प्राचीन राज्य कार्तिकेयपुर से निर्गत ताम्रपत्रों में दान भूमि का हरण करने वाले के लिए साठ हजार वर्षों तक मल का कीड़ा बनने की कामना की गयी थी। किरौली ताम्रपत्र में भूमि दान और दानग्राही के पुण्य को इस प्रकार व्यक्त किया गया है-
भूमि यः प्रतिगृहणाति यश्च भूमि प्रयछति।
उभौ तौ पुण्य कर्माणो नियतं स्वर्गा गानिनौ।।
भावार्थ- ‘‘जो भूमि को प्राप्त करता है और जो भूमि को देता है। वे दोनों ही पुण्य कर्मों वाले हैं और निश्चय ही स्वर्ग को प्राप्त होते हैं।’’
इस ताम्रपत्र को चंदों के परम्परागत लेखक जोशी ब्राह्मण के स्थान पर वैकुण्ड पंडित ने लिखा।
✐ डॉ. नरसिंह