कुमाऊँ राज्य पर प्रथम रोहिला आक्रमण सन् 1743 ई. में किया गया था। रोहिला सेना लूटपाट करते हुए चंद राज्य की राजधानी अल्मोड़ा पहुँच गयी। इतिहास की यह प्रथम और अंतिम घटना थी कि मुस्लिम आक्रमणकारी सेना चंदों की राजधानी में प्रवेश कर गयी। इस आक्रमण के समय कुमाऊँ राज्य के वैदेशिक संबंधों की जानकारी हेतु इस पर्वतीय राज्य का संक्षिप्त इतिहास का ज्ञान होना आवश्यक है।
कुमाऊँ राज्य-
इस पर्वतीय राज्य की स्थापना का श्रेय चंद वंश को जाता है। इस वंश का इतिहास कत्यूरी काल में आरंभ हो चुका था। सैकड़ों वर्षों तक चंद राजसत्ता केवल चंपावत के आस पास तक सीमित थी। वर्तमान कुमाऊँ को अपने अधिकार में लेने वाले प्रथम चंद राजा रुद्रचंद (1565-1597) थे, जिनके पिता राजा बालो कल्याणचंद (1545-1565) ने सन् 1563 ई. में चंद राज्य की राजधानी चंपावत से अल्मोड़ा नगर में स्थानान्तरित की थी। लेकिन बालो कल्याणचंद के अधिकार क्षेत्र में केवल अल्मोड़ा से चम्पावत तक का भू-भाग ही सम्मिलित था, सम्पूर्ण कुमाऊँ नहीं।
सोलहवीं शताब्दी में सीरा राज्य (वर्तमान डीडीहाट) पर डोटी के मल्ल राजा हरिमल का अधिकार था, जिसे रुद्रचंद ने सन् 1581 ई. में पराजित कर नेपाल वापस जाने को बाध्य किया था। इस महान चंद राजा ने उत्तर-पश्चिमी कुमाऊँ क्षेत्र के कत्यूरी वंशजों को भी अपने अधीन कर लिया था।
कुमाऊँ राज्य के वैदेशिक संबंध-
कुमाऊँ राज्य की स्थापना के साथ ही पूर्वी और पश्चिमी सीमा पर क्रमशः डोटी व गढवाल राज्य से शत्रुता, इस राज्य के पतन के साथ समाप्त हुई।
रुद्रचंद के वैदेशिक संबंध जहाँ डोटी और गढ़वाल से शत्रुतापूर्ण थे, वहीं दक्षिणी सीमा पर स्थित मुगल साम्राज्य से अच्छे संबंध स्थापित करने में वह सफल रहे थे। इस राजा ने मुगल बादशाह अकबर (1556-1605) से सन् 1588 ई. में लाहौर में भेंट कर तराई-भाबर का अधिकार भी प्राप्त कर लिया था। रुद्रचंद अपने शासन के 23 वें वर्ष में एक पर्वतीय-मैदानी राज्य का निर्मता बनने में सफल हुए, जिसे वर्तमान में उत्तराखण्ड राज्य का कुमाऊँ मण्डल कहा जाता है।
पंडित बद्रीदत्त पाण्डे ने प्रथम रोहिला आक्रमण के समय कुमाऊँ राज्य के वैदेशिक संबंधों को इस प्रकार से व्यक्त किया-
‘‘सन् 1743-44 में अली मुहम्मद खाँ ने अपने तीन नामी सरदार हाफिज रहमत खाँ, पैदा खाँ तथा बक्सी सरदारखाँ को 10000 सेना लेकर कुमाऊँ पर चढ़ाई करने को भेज दिया। कल्याणचंद संकट में थे। आंवले तथा अवध के नवाब दुश्मन बने बैठे थे। डोटी के राजा अपने एक साधारण प्रजा के कूर्मांचल के राजा बन जाने से दिल-ही-दिल में कुढ़े हुए थे, इधर रोहिले आ धमके। इसकी सूचना श्रीरामदत्त अधिकारी ने राजा को दे दी और उधर शिवदेव जोशी ने धन माँगा, ताकि वह फौज एकत्र कर व किलेबंदी कर रोहिलों को कुमाऊँ में न आने दें।’’
रोहिला आक्रमण से पूर्व ही कल्याणचंद (सन् 1728-1747) ने रामदत्त अधिकारी को कोटा-भाबर का चंद प्रशासक नियुक्त किया। झिजार के पंडित शिवदेव जोशी को तराई-भाबर का सूबेदार एवं सर्वसर्वा प्रशासक नियुक्त किया, जिसके नेतृत्व में चंद सेना ने रोहिलों से तराई-भाबर में युद्ध किया था।
मुगलों से संबंध-
मुगलों से सर्वप्रथम चंद राज्य के संबंध रुद्रचंद ने स्थापित किये थे। इस राजा के उत्तराधिकारी लक्ष्मीचंद (1597-1621) ने जहाँगीर के दरबार में अपनी उपस्थिति दी थी। लक्ष्मीचंद के पौत्र बाजबहादुरचंद (1638-1678) भी शाहजहाँ (1628-1658) के दिल्ली दरबार में गये थे। (‘‘शाके 1578 बैशाख सुदी 3 गुरौं श्री राजा बाजबहादुरचंददेव की चलाई दिल्ली-दरबार भई।’’ अर्थात 27 अप्रैल, 1656 को राजा बाजबहादुरचंददेव दिल्ली दरबार गये थे।)
दाराशिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह को शरण देने पर औरंगजेब (1658-1707) ने धमकी दी कि तराई को कुमाऊँ राज्य से छीन लिया जायेगा। बाजबहादुर ने अपने पुत्र कुँवर पर्वतसिंह और राजगुरु विश्वस्वरूप पांडे को दिल्ली भेजा और इस धमकी का सकारात्मक उत्तर एक पत्र के माध्यम से दिया। इतिहासकार जदुनाथ सरकार के अनुसार- ‘‘1665 ई. में एक सेना कुमाऊँ में राजा बाजबहादुरचंद के विरुद्ध भेजी गई। तराई पर सम्राट औरंगजेब की सेना का अधिकार हो गया।’’ इतिहासकारों के अनुसार औरंगजेब से क्षमा याचना के उपरांत अक्टूबर, 1673 ई. बाजबहादुरचंद को तराई पुनः प्राप्त हो गया था।
उद्योतचंद (1678-1698), ज्ञानचंद (1698-1708) और जगतचंद (1708-1720) के समय तराई-भाबर शान्त रहा था। उद्योतचंद ने तराई में अधिक बसावट हेतु प्रयास किये। लेकिन जगतचंद के उत्तराधिकारी राजा देवीचंद (1720-1726) की महत्वाकांक्षा ने तराई को अशान्ति की ओर धकेल दिया। राजा कल्याणचंद (1728-1747) के शासन काल में इस अशान्ति को अवध के नवाब और आंवला के रोहिला सरदार ने चरम पर पहुँचा दिया था।
आंवला से संबंध-
औरंगजेब की मृत्यु (सन् 1707 ई.) से मुगल साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर हो गया था। सन् 1707 से 1719 तक कुल 12 वर्षों में छः मुगल दिल्ली के मयूर सिंहासन पर आसित हुए थे। इस कालखण्ड में मुगल साम्राज्य की सीमाओं के भीतर नवीन राज्यों का उत्थान हुआ, जिनमें से कुमाऊँ के दक्षिणी सीमा पर दो मुस्लिम राज्य अवध और रोहिलखण्ड भी थे। इन दो मुस्लिम राज्यों की राजधानी क्रमशः फैजाबाद और आंवला में थी।
रोहिलखण्ड का रोहिला सरदार दाउद खान बरेली के पास आंवला में रहता था। वह घोड़ों का अफगान व्यापारी था। धीरे-धीरे उसने एक सैन्य संगठन बनाया और आंवला का सरदार बन बैठा। एक व्यापारी से सरदार बनने में चंद राजा देवीचंद ने दाउद खान की सहायता की थी और उसे अपने मैदानी क्षेत्र का सेनापति भी नियुक्त किया था।
दाउद खान ने अपना उत्तराधिकारी अली मुहम्मद (1726-1748) को घोषित किया। कहा जाता था कि रोहिला सरदार दाउद खान ने बाँकोली (बदायूं का गांव) से एक जाट लड़का गोद लिया और उसका नाम अली मुहम्मद रखा। उस समय का एक किस्सा है-
‘‘वैसे से ऐसी करी देखो प्रभु के ठाट,
आँवले को राजा भयो बाँकोली को जाट।’’
चंद राजा देवीचंद ने दाउद खान की हत्या करवा दी थी। रोहिला सरदार अली मुहम्मद अपने संरक्षक दाउद खान की हत्या का प्रतिशोध चंदों से लेना चाहता था। दाउद खान की हत्या के संबंध में हिमालयन गजेटियर के लेखक एडविन थॉमस एटकिंसन निम्नलिखित तथ्य रखते हैं-
1- दाउद खान को देवीचंद ने देश (तराई-भाबर) का सेनापति नियुक्त किया था।
2- देवीचंद उत्तर प्रदेश के मैदानी क्षेत्र में दाउद खान और मुगल वंशज साबिर शाह की सहायता से मुगल बादशाह मुहम्मद शाह को चुनौती देने की योजना पर कार्य कर रहे थे।
3- मुगल बादशाह मुहम्मद शाह ने अजमत उल्लाखां के नेतृत्व में एक मुगल सेना को काशीपुर और रुद्रपुर पर अधिकार करने को भेजा।
4- कुमाऊँ की सेना नगीना (बिजनौर) के पास मुगल सेना से पराजित हो गई। दाउद खान को अजमत उल्लाखां ने रिश्वत देकर अपने पक्ष में कर लिया था। युद्धोपरांत दाउद खान चंद राजा देवीचंद से अपने 40 हजार सैनिकों का वेतन वसूल करना चाहता था।
5- देवीचंद ने दाउद खान के धोखे से अनजाना बनने का बहाना बनाते हुए उसे सैनिकों के शेष वेतन हेतु ठाकुरद्वारा के पास बुलाकर मार डाला।
अवध से संबंध-
अठारहवीं शताब्दी में कुमाऊँ राज्य के दक्षिण पूर्वी सीमा पर अवध राज्य स्थित था। इस मुस्लिम राज्य के नवाब सफदर जंग या मंसूर अली खां (1739-1754) से कल्याणचंद के संबंध अच्छे नहीं थे। तराई में सरबना व बिलहरी को लेकर विवाद चल रहा था। इस विवाद की शुरूवात सन् 1731 ई. में अवध के प्रथम नवाब सआदत अली खान (बुरहान-उल-मुल्क) द्वारा तराई में सरबना और बिलहरी (बिल्हैरी) पर अधिकार करने से हुई थी।
ब्रिटिश शासन काल में बिल्हैरी परगने में वर्तमान खटीमा तहसील के गांव सम्मिलित थे। ए. टी. एटकिंसन के अनुसार सरबना का प्राचीन नाम छिनकी परगना था। चंद राजा बाजबहादुरचंद के बुंगा ताम्रपत्र शाके 1596 में छीनकी परगने का इस प्रकार से उल्लेख किया गया है- ‘‘ माल की जागीर छीनकी परगना मै मैः हलदड़ी गा (उ) मौः मढखीना मौः रतनपुरो पटपड़ी का बदला मौः डफरीया येकत्र चार गाउ दीना।’’
वर्तमान खटीमा तहसील में हल्दी, रतनपुर, बिल्हैरी और छिनकी नामक राजस्व गांव हैं। हल्दी गांव दक्षिण में पीलीभीत की सीमा से लगा गांव है। हल्दी के निकट ही पचपेरा गांव है। संभवतः रतनपुर पटपड़ी ही आज का पचपेरा गांव है। जबकि छिनकी और बिल्हैरी गांव खटीमा के उत्तर में स्थित किल्पुरा वन प्रभाग से लगे गांव हैं। ब्रिटिश काल में चंद कालीन छिनकी परगना को बिलहरी और सरबना में विभाजित कर जनपद पीलीभीत में सम्मिलित कर दिया गया था।
नेपाल से संबंध-
नेपाल के डोटी राजा भी कुमाऊँ राज्य से परम्परागत द्वेष रखते थे। सोलहवीं शताब्दी में रुद्रचंद ने हरिमल्ल को काली पार खदेड़ दिया था। रुद्रचंद से बाजबहादुर चंद तक लगभग सौ वर्षों में डोटी राज्य की ओर से शान्ति थी। लेकिन बाजबहादुरचंद के पुत्र उद्योतचंद को गढ़वाल के साथ-साथ डोटी राज्य से भी उलझना पड़ा था।
सन् 1680 ई. में गढ़वाल और डोटी राज्य ने कुमाऊँ पर आक्रमण करने हेतु संधि की और क्रमशः द्वाराहाट तथा चंपावत पर अधिकार कर लिया था। दो वर्ष के युद्धोपरांत डोटी राजा देवपाल रैंका तथा गढवाली राजा फतेपतिशाह (1664-1716) की हार हुई।
उद्योतचंद और डोटी राजा देवपाल के मध्य अजमेरगढ़, रिपाइल, खैरागढ़ और जुराइल के युद्ध हुए। इसके पश्चात चंद सिंहासन पर ज्ञानचंद और जगतचंद आसित हुए, जो अपने शासन काल में गढ़वाल से युद्ध में व्यस्त रहे थे। कल्याणचंद का जन्म डोटी के माल क्षेत्र में हुआ था और जब एक निर्धन नेपाली व्यक्ति कुमाऊँ के राजसिंहासन पर आसित हुआ, डोटी का राजा अंतः मन से चिढ़ा हुआ था।
गढ़वाल से संबंध-
गढ़वाल राज्य से सीमा विवाद और परम्परागत शत्रुता चली आ रही थी। रुद्रचंद से कल्याणचंद तक कुमाऊँ और गढ़वाल के मध्य, युद्ध ही एक सतत् क्रिया-प्रतिक्रिया थी। गढ़वाल अभियान में रुद्रचंद ने अपना योग्य सेनापति पुरुषोत्तम पंत को खो दिया था। इस राजा का पुत्र लक्ष्मीचंद सात युद्ध हारने के उपरांत अपने आठवें गढ़वाल अभियान में सफल हुआ था। बाजबहादुरचंद ने गढ़वाल में लूटपाट की और उसके पुत्र उद्योतचंद ने गढ़वाल अभियान में अपना योग्य सेनापति मैसी साहू को खो दिया था।
उद्योतचंद के उत्तराधिकारी ज्ञानचंद के संबंध में एटकिंसन लिखते हैं- ‘‘पुराने समय में जिस तरह हर कुमाउनी राजा सिंहासनारूढ़ होते ही डोटी पर आक्रमण करना अपना दायित्व समझता रहा, उसी तरह अब हर नया चंद राजा गढ़वाल पर आक्रमण करना अपना प्रथम कर्तव्य समझने लगा।’’ ज्ञानचंद और उसके उत्तराधिकारी जगतचंद ने गढ़वाल को कई बार लूटा। जगतचंद ने गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर पर अधिकार कर, विजित प्रदेश ब्राह्मणों को दान में दे दिया था।
रोहिला आक्रमण से पूर्व ही कुमाऊँ और गढ़वाल में सन् 1739 ई. में संधि हो चुकी थी। कल्याणचंद के समकालीन गढ़वाल राजा प्रदीपशाह (1717-1773) के संबंध में बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘ सवंत् 1796 में गढ़वाल के राजा प्रदीपशाह के दो वकील श्रीवंधु मिश्र तथा श्री लक्ष्मीधर पत्र व भेंट लेकर अल्मोड़ा आये। मेल-मिलाप का संदेश लाये। संधि ठहराई गई। पत्र का उत्तर तथा बदले में भेंट कुमाऊँ के राजा से भी ले गये।’’
राजपूत राजाओं से संबंध-
1- सन् 1741 ई. में उदयपुर के राजा जगतसिंह का वकील पत्र एवं भेंट लेकर अल्मोड़ा आया था। राजा कल्याणचंद ने भी उदयपुर के वकील को पत्र एवं उपहार देकर विदा किया।
2- सन् 1741 ई. में गढ़वाल के राजा प्रदीपशाह के वकील के साथ कल्याणचंद ने भी अपना वकील पत्र और उपहारों के साथ जयपुर के राजा जयसिंह के पास भेजा था।
वैवाहिक संबंध-
कुमाऊँ के राजा कल्याणचंद ने वैवाहिक संबंधों से मध्य हिमालय में अपनी स्थिति को सशक्त करने का प्रयास किया। इस राजा ने अपनी एक पुत्री राज कुँवरी का विवाह कठेहर क्षेत्र के राजा तेजसिंह कठेड़िया से सन् 1731 ई. में सम्पन्न करवाया था, जिसमें कठेहर के आस पास के नौ राजा विवाह समारोह में अल्मोड़ा आये थे।
सन् 1736 ई. में इस राजा ने अपनी दूसरी पुत्री उच्छव कुँवरी का विवाह सिरमौर (नाहन) के राजा विजयप्रकाश के साथ सम्पन्न करवाया था। सन् 1744 ई. में इस राजा ने तीसरी पुत्री भागा कुँवरी का विवाह राजा महेन्द्रसिंह के पुत्र कुँवर जोहारसिंह के साथ सम्पन्न करवाया था।
चंद राजा कल्याणचंद का सीमावर्ती राज्यों डोटी, अवध, रोहिला और गढ़वाल से वैदेशिक संबंध अच्छे नहीं थे। सन् 1739 ई. में गढ़वाल राजा प्रदीपशाह से हुई संधि और राजपूत राजाओं से पत्र व्यवहार तथा वैवाहिक संबंध स्थापित करना आदि, उसकी वैदेशिक नीति की सफलता थी। गढ़वाल से हुई संधि प्रथम रोहिला युद्ध में कारगर सिद्ध हुई। इस युद्ध में गढ़वाल के राजा प्रदीपशाह ने कल्याणचंद को अपने राज्य में शरण ही नहीं दी, अपितु युद्ध विराम में भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाहन किया था।