प्रथम महाकल्प-पूर्व कैम्ब्रियन-
पृथ्वी और मानव का प्रारम्भिक इतिहास का मूल स्रोत पृथ्वी ही है और जिसकी आयु के साथ मानव इतिहास निरन्तर प्रगतिशील होता जा रहा है। वैज्ञानिकों का मत है कि ‘‘हमारी पृथ्वी 4.6 अरब वर्ष पुरानी है।’’ लेकिन मानव इतिहास इतना प्राचीन नहीं है। जीव वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी पर एक क्रमिक विकास के तहत प्राणियों का विकास हुआ। मानव का आरम्भिक इतिहास इस पृथ्वी पर लाखों वर्ष प्राचीन रहा है। लेकिन मानव इतिहास से भी प्राचीन ‘पृथ्वी का इतिहास’ भूवैज्ञानिकों के लिए एक चुनौती से कम न था। पृथ्वी की ‘शैल रचना’ और ‘प्राणी जगत उत्पत्ति सिद्धांत’ के आधार पर भूगर्व वैज्ञानिकों ने शैल-निर्माण कालानुक्रम को निर्धारित किया है, जो ‘‘पृथ्वी के इतिहास के लिए एक पंचांग के रूप में काम करता है।’’ शैल आयु निर्धारण के उद्देश्य से भूवैज्ञानिकों ने समय को दो ‘अवधि’- पूर्व कैम्ब्रियन दृश्यजीवी बांटा है। इन दो ‘अवधि’ को चार महाकल्प- पूर्व कैम्ब्रियन, पुराजीवी, मध्यजीवी और आद्यजीवी महाकल्प में विभाजित किया है। पूर्व कैम्ब्रियन महाकल्प सबसे प्राचीन महाकल्प है, जिसे प्रथम महाकल्प कहते हैं और जिसकी अवधि पृथ्वी की भूवैज्ञानिक आयु की लगभग 88 प्रतिशत मान्य है। इस महाकल्प में उष्ण सागरों में जीवन विकसित हुआ और भारत के सन्दर्भ में भूवैज्ञानिक एक मत हैं कि दक्षिण भारत का पठार पूर्व कैम्ब्रियन कालीन शैलों से निर्मित हुआ है।
भूवैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी के वर्तमान ‘इअन’ का नाम दृश्यजीवी है, जिसे तीन महाकल्पों- पुराजीवी, मध्यजीवी आद्यजीवी में बांटा गया है। महाकल्प को ‘कल्प’ और कल्प को ‘युग’ में बांटा गया है। युग को ‘काल’ और काल को ‘दीर्घकाल’ में विभाजित किया गया है।
द्वितीय महाकल्प –
द्वितीय महाकल्प ‘पुराजीवी’ (पेलिओजोइक) का विस्तार 60 से 23 करोड़ वर्ष पूर्व तक माना जाता है। इस महाकल्प को छः कल्पों- कैम्ब्रियन, ओर्डोविसियन, सिलुरियन, डिवोनियन, कार्बोनीफेरस और पर्मियन में बांटा गया है। ‘कैम्ब्रियन’ और ‘ओर्डोविसियन’ कल्प में ‘‘पादप जीवन केवल सागरों तक सीमित था और मुख्य प्रकार के अकशेरुकी विकसित हो चुके थे।’’ तृतीय कल्प ‘सिलुरियन’ में ‘‘जमीन में प्रथम बार पौधे दिखाई दिये’’, जो पत्ते रहित थे। इस महाकल्प के चौथे कल्प ‘डिवोनियन’ में रीढ़धारी पशुओं, मछलियों और पत्ते युक्त पौधे विकसित हुए। जबकि ‘कार्बोनीफेरस’ कल्प में सदाबहार वृक्ष, सरीसृप और कीट की कुछ प्रजातियों में पंखों का विकास हुआ। इस महाकल्प के अंतिम कल्प ‘पर्मियन’ में पर्णपाती वृक्षों, पादपों और प्राणियों की संख्या में वृद्धि हुई।
तृतीय महाकल्प –
तृतीय महाकल्प मध्यजीवी (मसोजोइक) का विस्तार 25 से 6.5 करोड़ वर्ष पूर्व तक रहा था। इस महाकल्प को तीन कल्पों- ट्रियासिक, जुरेसिक और क्रिटेसियस में बांटा गया है। इस महाकल्प के प्रथम कल्प ‘ट्रियासिक’ में मांसाहारी मछली, मक्खी, दीमक, समुद्री झींगा तथा लघु आकार के डायनासोर अस्तित्व में आये। द्वितीय कल्प ‘जुरेसिक’ में कोणधारी वृक्ष, चिड़ियां और छोटे आकार के स्तनपायी विकास की प्रथम अवस्था में थे। जबकि ‘क्रिटेसियस’ कल्प में विशाल सरीसृप और डायनासोरों का प्रभुत्व रहा। इस युग के समाप्ति होते-होते डायनासोर लुप्त हो गये। मध्यजीव महाकल्प में पृथ्वी पर ‘पैंजिया’ नामक एक महाद्वीप था, जो इस महाकल्प के अंतिम चरण में दो महाद्वीपों- ‘लारेशिया’ और ‘गौण्डवानालैण्ड’ में विभाजित हो गया। इन दो महाद्वीपों के मध्य ‘टेथिस सागर’ का निर्माण हुआ। भूवैज्ञानिकां के अनुसार मध्यजीव महाकल्प के दौरान हिमालय के स्थान पर समुद्र था, जिसे ‘टेथिस सागर’ कहा गया। वर्तमान में लद्दाख क्षेत्र की ‘पेंगांग’ झील और तिब्बत के पठार की सैकड़ों झीलों को टेथिस सागर का अवशेष माना जाता है।
चौथा महाकल्प –
चौथा महाकल्प आद्यजीवी (सीनोजोइक) का आरम्भ 6.5 करोड़ वर्ष पूर्व से हुआ था। इस महाकल्प को दो कल्पों- तृतीय और चतुर्थ कल्प में विभाजित किया गया है। ‘तृतीय’ कल्प को पांच युगों- पेलियोसीन, इओसीन, ओलिगोसीन, मायोसीन और प्लीओसीन में बांटा गया है। प्रथम दो युगों ‘पेलियोसीन’ (पुरानूतन) और ‘इओसीन’ (आदिनूतन) में ‘‘आधुनिक स्तनपायी हाथियों के पूर्वज, गैंडा, घोड़े, सूअर और चौपायों की किस्में अस्तित्व में आईं। म्यांमार में आदिम बंदर और ऊलक (गिबॅन) देखे गये।’’ इस महाकल्प के इओसीन युग में टेथिस सागर के स्थान पर हिमालय का निर्माण आरम्भ हो गया था। इस निर्माण के साथ ही पृथ्वी के दो महाद्वीपों का स्वरूप बदलने लगा था। तृतीय युग ‘ओलिगोसीन’ (अल्पनूतन) में ‘‘आधुनिक बिल्लियों, कुत्तों और रीछों के पूर्वज विकसित हुए। संभवतया मानव के पूर्वज पूँछहीन बंदर की भी इसी युग में उत्पत्ति हुई।’’ चतुर्थ युग ‘मायोसीन’ (मध्यनूतन) में ‘‘कपि की संख्या में वृद्धि होने लगी। हाथियों के आकार में निरन्तर वृद्धि होती गई।’’ पांचवें युग ‘प्लीओसीन’ (अतिनतून) लगभग 70 से 20 लाख वर्ष पूर्व तक विस्तृत रहा। इस युग में ‘‘महाद्वीपों और महासागरों ने वर्तमान स्वरूप लेना प्रारम्भ कर दिया था।’’
आधुनिक मानव प्रकट हुआ –
आद्यजीवी (नूतनजीवी) महाकल्प के चतुर्थ कल्प को दो युगों- प्लीस्टोसीन और होलोसीन में बांटा गया है। पृथ्वी के पांच युगों के पश्चात छठा युग ‘प्लीस्टोसीन’ (अभिनूतन/अत्यंत नूतन) 20 लाख से 12 हजार वर्ष पूर्व तक विस्तृत रहा। इस युग में हिमालय का अधिकांश भाग हिमाच्छादित था। इस युग में आरम्भिक मानव में प्रस्तर के औजार बनाने की समझ विकसित हो चुकी थी। ‘‘वास्तविक हाथी, घोड़े, बैल प्रथम बार प्रकट हुए।’’ इस युग के अन्त में आधुनिक मानव प्रकट हुआ। ‘‘लगभग‘ 30,000 वर्ष पहले आधुनिक मानव का विकास हुआ। उसे हम ‘होमो सेपियन’ ‘प्रज्ञ मानव’ या विशिष्ट अनुसंधान-नामों से पुकारते हैं, जैसे कि क्रौ-मैग्नौन, चासलेड ग्रीमाल्डी इत्यादि।’’ पृथ्वी के सातवें और अंतिम युग ‘होलोसीन’ (नव प्रस्तर), लगभग 10 हजार वर्ष पहले आरम्भ हुआ। इस युग के आरंभिक चरणों में मानव ने पशुपालन और कृषि के साथ सभ्यता के विकास की ओर सशक्त पग बढ़ा दिये थे।
शैल निर्माण और जीवनोत्पत्ति के विविध चरणों के आधार भूवैज्ञानिकों ने पृथ्वी के क्रमिक विकास का पंचांग निर्मित किया है। इसी प्रकार पुरातत्वविदों और इतिहासकारों ने भी पृथ्वी पर मानव के क्रमिक विकास को प्राक्-इतिहास आद्य-इतिहास विभाजित किया है। इस विभाजन का मुख्य आधार भारत के संदर्भ में मानव के साक्षर अभिलेखों का प्राप्ति काल से है। प्राक्-इतिहास को प्रागैतिहासिक या ‘पाषाण काल’ भी कहते हैं, जिसे तीन भागों – पुरापाषाण, मध्यपाषाण और नवपाषाण काल में विभाजित किया गया है। पृथ्वी के भूवैज्ञानिक पंचांग के आधार पर कह सकते हैं कि प्रागैतिहासिक काल का आरम्भ आद्यजीवी महाकल्प के तृतीय कल्प के ‘प्लीओसीन’ (अति नतून) युग में 70 से 20 लाख वर्ष पहले हुआ और इसका अंत भी इसी महाकल्प के सातवें युग ‘होलोसीन’ (नव प्रस्तर) के आरम्भिक चरण में लगभग 10 से 8 हजार वर्ष पहले हुआ।