गंगोली में सामन्ती शासन व्यवस्था सोलहवीं शताब्दी में चंद कालीन कुमाऊँ राज्य की प्रमुख विशेषता थी। इस सामन्ती शासन काल को रजवार शासन काल भी कह सकते हैं। गंगोली में सामन्ती शासन, चंद राजा रुद्रचंद द्वारा सीराकोट को विजित करने के उपरांत शुरू हुआ था। सीराकोट पूर्वी रामगंगा और काली अंतस्थ क्षेत्र का सबसे दुर्भेद्य दुर्ग था, जिस पर डोटी (नेपाल) के मल्ल शासक हरिमल्ल का अधिकार था। डोटी के मल्ल शासक भी प्राचीन कत्यूरी शाखा से ही थे। सीराकोट विजय के साथ ही सीरा राज्य सहित सम्पूर्ण कुमाऊँ पर रुद्रचंद का अधिकार हो गया था। नव विजित सीरा राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था के संबंध में पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘इसके बाद राजा रुद्रचंद अल्मोड़ा को लौट आये और पुरुष पंत को हुक्म दिया कि विजित प्रदेश का इन्तजाम पूरा व पक्का करके अल्मोड़ा आयें।’’ पुरुष पंत या पुर्खूपंत गंगोली के ब्राह्मण थे, जो अंतिम मणकोटी शासक नारायणचंद के दीवान थे। गंगोली के इस योग्य ब्राह्मण की रणनीति और कूटनीति द्वारा ही रुद्रचंद सीराकोट जैसे दुर्भेद्य दुर्ग को विजित करने में सफल हुए थे। सीराकोट के पतनोपरांत अस्कोट’ सरयू पूर्व चंद राज्य क्षेत्र का केन्द्र बन गया था।
अस्कोट-
पिथौरागढ़ जनपद का एक कस्बा ‘अस्कोट’ 29° 45‘ 54‘‘ उत्तरी अक्षांश और 80° 20‘03‘‘ पूर्वी देशांतर रेखा पर स्थित है। नैनी सैनी हवाई अड्डा, पिथौरागढ़ से अस्कोट 48 किलोमीटर दूर है, जो ब्रिटिश काल में एक स्थानीय राजपरिवार के जागीर के रूप में परगना अस्कोट कहलाता था। यह परगना काली नदी जलागम क्षेत्र में स्थित था, जहाँ उत्तराखण्ड की प्राचीन हाट संस्कृति से संबद्ध कत्यूरी राजाओं की बाजार ‘बगड़ीहाट’ और राजधानी ‘लखनपुर’ के अवशेष चिह्न आज भी विद्यमान हैं। राजधानी ‘लखनपुर’ कत्यूरियों की एक शाखा अभयपाल के नेतृत्व में सन् 1279 ई. में स्थापित हुई थी और वहां के शासक अस्कोट के पाल कहलाये। कालान्तर में अस्कोट-पाल राजवंश के शासक कत्यूरियों की एक अन्य शक्तिशाली शाखा डोटी-मल्ल के अधीन आ चुके थे। सन् 1579 ई. में सीराकोट अभियान के समय रुद्रचंद ने मल्ल शासक हरिमल्ल को पराजित करने हेतु अस्कोट-पाल राजपरिवार से वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिया था। यही कारण था कि सीराकोट विजित करने के उपरांत रुद्रचंद ने सरयू पूर्व का समस्त राज्य अस्कोट-पाल वंश के रायपाल को सौंप दिया था।
रुद्रचंददेव द्वारा सरयू पूर्व का समस्त राज्य अस्कोट-पाल वंश के रायपाल को सौंपने का एक अन्य कारण चंद राज्य का विस्तार पश्चिम में गढ़वाल तक करना था। सरयू पूर्व के चंद राज्य का बंदोबस्त करने के उपरांत पुरुष पंत को सम्मानित किया गया था। एटकिंसन लिखते हैं- ‘‘रुद्रचंद ने कई गांव पुरखू को पुरस्कार के रूप में दिये जिनको तामपत्रों में दर्ज किया गया। ये ताम्रपत्र अब पुरखू के वंशजों के पास हैं, जो गंगोली में रहते है। इसमें लिखा है कि 1581 ई. में भाद्र महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को जगीसा (अल्मोड़ा के पास जागेश्वर) की उपस्थिति में शनिवार को दिया गया।’’ सीराकोट अभियान की सफलता के उपरांत पुरुष पंत बधाणगढ़, (गढ़वाल) अभियान में गये, जहाँ वे मारे गये।
पुरुष पंत के अतिरिक्त गंगोली में अस्कोट-पाल शासन काल में पीरु गुसाईं भी महत्वपूर्ण व्यक्ति थे, जिन्हें इतिहासकार अस्कोट-पाल वंश से संबद्ध करते हैं। आनन्दचंद रजवार के किरौली ताम्रपत्र साक्षियों में क्रमशः नरायण गुसाईं, पीरु गुसाईं और खड़कू गुसाई का नाम उत्कीर्ण है। प्रथम साक्षी नरायण गुसाईं राजा लक्ष्मीचंद के पुत्र थे। गुसाईं नामान्त वाले पीरु और खड़कू चंद राजपरिवार के सदस्य थे, जो संभवतः लक्ष्मीचंद के ज्येष्ठ भ्राता शक्ति गुसाईं के पुत्र थे। यही पीरु गुसाईं कालान्तर में अल्मोड़ा में हुए राजषडयंत्रों में सम्मिलित थे।
सरयू पूर्वी क्षेत्र पर अस्कोट पाल राजवंश के 94 वें राजा रायपाल मात्र 7 वर्ष ही शासन कर पाये। सन् 1588 ई. में उसकी हत्या गोपी ओझा नामक ब्राह्मण ने कर दी थी। यह वह समय था, जब चंद राजा रुद्रचंद मुगल बादशाह अकबर से भेंट करने हेतु लाहौर गये थे। रायपाल की हत्या करने वाला ओझा ब्राह्मण अस्कोट-पाल राजवंश के पुरोहित वर्ग से था। इस राजा का उत्तराधिकारी और पुत्र महेन्द्रपाल उस समय नवजात बालक था। अतः रायपाल के अन्य उत्तराधिकारियों में सन्तुलन व संतुष्टि बनाये रखने हेतु सरयू पूर्व के क्षेत्र को अस्कोट राजपरिवार के सदस्यों में विभाजित कर दिया गया था। पूर्वी रामगंगा-काली अंतस्थ क्षेत्र (सीरा एवं सोर) पर अस्कोट राजपरिवार के संरक्षक कल्याणपाल रजवार ने तथा सरयू-पूर्वी रामगंगा अंतस्थ क्षेत्र (गंगोली) पर क्रमशः इन्द्र रजवार, आनन्दचंद रजवार, पृथ्वीचंद रजवार और महेन्द्रपाल ने शासन किया था। गंगोली में रजवार नामान्त राजाओं के शासन को ही सामन्ती शासन काल कह सकते हैं।
गंगोली में सामन्ती शासन की पुष्टि करने वाले ताम्रपत्र-
1- इन्द्र रजवार का चामी, बागेश्वर ताम्रपत्र शाके 1516।
2- आनन्दचंद रजवार का किरौली, बेरीनाग ताम्रपत्र शाके 1519।
3- पृथ्वीचंद रजवार का अठिगांव, गणाई गंगोली ताम्रपत्र शाके 1532।
4- महेन्द्रपाल का अठिगांव ताम्रपत्र शाके 1544।
उक्त ताम्रपत्रों के अतिरिक्त भेटा (कालापानी), पिथौरागढ़ से प्राप्त ताम्रपत्र (शाके 1525 या सन् 1603 ई.) भी महत्वपूर्ण है, जो सरयू पूर्व क्षेत्र में रजवार नामांत वाले शासन की पुष्टि करता है। अस्कोट-पाल शासकों के संबंध में पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘इस वंश का राजा जो गद्दी पर बैठता है, वह रजवार कहलाता है। युवराज को लला कहते हैं और बिरादरों को गुसाईं कहा जाता है।’’ परन्तु ऐतिहासिक तथ्यों से स्पष्ट होता है कि चंद राजपरिवार के सदस्य ‘गुसाई’ और बिरादर ‘रौतेला’ कहलाते थे। वर्तमान में रजवार, गुसाईं और रौतेला कुमाउनी क्षत्रिय जाति में समाहित हो चुके हैं। रौतेला शब्द की व्युत्पत्ति ‘रौत’ और ‘इला’ शब्द की संधि से हुई। रौत चंद कालीन एक वीरता सूचक पदवी थी। इसके अतिरिक्त कुमाऊँ के रावत क्षत्रियों को कुमाउनी में ‘रौत’ भी कहते हैं। उत्तराखण्ड की प्राचीन किरात जाति के वंशज अब ‘वनराजी‘ या ‘वनरौत‘ कहलाते हैं, जो अस्कोट के आस पास के क्षेत्र में अधिक संख्या में निवास करते थे। संभवतः प्रथम अस्कोट-पाल शासक अभयपाल ने वनराजियों से ही अस्कोट का राजसिंहासन अधिगृहित किया था।
अस्कोट राजपरिवार से संबंधित शाके 1525 का भेटा ताम्रपत्र, दो राजाओं लक्ष्मीचंद और उनके अधीनस्थ कल्याणचंद रजवार का एक संयुक्त ताम्रपत्र है। इस ताम्रपत्र के आरम्भ में राजा लक्ष्मणचन्द्र के द्वारा किये गये दान संकल्प का उल्लेख किया गया है। परन्तु इस संयुक्त ताम्रपत्र को अस्कोट-पाल शासक कल्याणपाल रजवार ने निर्गत किया था, जिसमें कुंवर महेन्द्रपाल का उल्लेख भी किया गया है। यह ताम्रपत्र इस तथ्य की पुष्टि करता महेन्द्रपाल ताम्रपत्र निर्गतकर्ता कल्याणपाल के संरक्षण में थे।
रायपाल की मृत्यूपरांत गंगोली में क्रमशः इन्द्र रजवार, आनन्द रजवार, पृथ्वी रजवार और महेन्द्रपाल ने शासन किया। इन सब रजवारों के ताम्रपत्र गंगोली क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं। परन्तु रजवार शासक महेन्द्रपाल के गणाई गंगोली ताम्रपत्र (1622 ई.) के उपरांत अन्य रजवारों के ताम्रपत्र प्राप्त नहीं हुए हैं। अतः महेन्द्रपाल गंगोली के अंतिम सामन्त शासक थे। लगभग सन् 1588 से 1623 ई. के कालखण्ड में चार रजवार शासकों ने सरयू पूर्व के गंगोली राज्य पर औसतन नौ-नौ वर्ष शासन किया था। अतः निश्चित शासनावधि के आधार पर गंगोली के सामन्त शासकों को ‘गंगोली का राज्यपाल’ भी कह सकते हैं, जिनकी नियुक्ति का अधिकार अस्कोट राजपरिवार को था।
गंगोली के सामन्ती शासन की विशेषताएं-
1- उपाधि-
मध्य कालीन चंद और क्षेत्रीय क्षत्रपों अस्कोट-पाल, डोटी-मल्ल और सोर-बम के प्रकाशित ताम्रपत्रों में स्वतंत्र शासक की उपाधि ’राजाधिराज महाराज’ या ’महाराजाधिराज’ उत्कीर्ण करने की परम्परा थी। जबकि गंगोली से प्राप्त रजवारों के प्रकाशित ताम्रपत्रों में केवल ‘राजाधिराज’ की उपाधि उत्कीर्ण है। अतः स्पष्ट है कि सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के रजवार नामान्त उपाधि धारक शासक स्वतंत्र नहीं थे। रजवारों के समकालीन रुद्रचंद (1568-1597) सम्पूर्ण कुमाऊँ के राजा थे। इस तथ्य की पुष्टि मुगल इतिहासकार अब्दुलकादिर बदायूनी अपनी तवारीख में इस प्रकार करते हैं- ‘‘1588 में कुमाऊँ का राजा सिवालिक पहाड़ होकर लाहौर आया। बादशाह सलामत से उसकी मुलाकात हुई।’’ मुगलों द्वारा रुद्रचंद को कुमाऊँ का राजा घोषित करने से स्पष्ट होता है कि इस पर्वतीय राज्य में एक कालखण्ड और एक क्षेत्र विशेष में चंद और अस्कोट-पाल राज्य का पल्लवित होना तभी संभव था, जब उनमें से एक मित्रवत अधीनस्थ राज्य था। राजाधिराज उपाधि धारक और ताम्रपत्र निर्गत करने का अधिकार रखने वाले अस्कोट के रजवार शासक गंगोली सहित सरयू पूर्व क्षेत्र में चंदों के अधीनस्थ थे।
2- ताम्रपत्र निर्गत करने का अधिकार-
प्रकाशित चंद ताम्रपत्रांं के अध्ययन से एक निष्कर्ष यह निकलता है कि शाके 1490 (सन् 1568 ई.) से निर्गत चंद ताम्रपत्रों में तिथि अंकना अभिलेखांत में उत्कीर्ण करने की परम्परा शुरू हो चुकी थी। रुद्रचंद का प्रकाशित बूढ़ाकेदार ताम्रपत्र शाके 1490 पहला चंद ताम्रपत्र था, जिसके अभिलेखांत भाग में तिथि अंकना की गयी थी। संभवतः रुद्रचंद ने कार्तिकेयपुर से निर्गत ताम्रपत्रों का अनुकरण करते हुए अपने राजतिलक के अवसर पर इस प्रकार के परिवर्तन को स्वीकृति दी थी। सन् 1568 ई. से पूर्व के सभी चंद ताम्रपत्रों में तिथि को लेखारम्भ में उत्कीर्ण किया जाता था। जैसे- कल्याणचंद के प्रकाशित जाखपंत ताम्रपत्र शाके1482 और ’’कुमौड़ पंचायती निर्णय पत्र’’ में तिथि को आरम्भिक पंक्तियों में उत्कीर्ण किया गया।
गंगोली से प्राप्त अस्कोट-पाल वंश के प्रकाशित ताम्रपत्रों में भी तिथि को आरम्भिक पंक्तियों में उत्कीर्ण किया गया है। चंदों की भाँति चौदहवीं शताब्दी के अस्कोट-पाल राजाओं के ताम्रपत्रों में भी तिथि अंकना आरम्भिक पंक्तियों में ही करने की परम्परा थी। एक अधीनस्थ शासक होते हुए गंगोली के रजवारों ने ताम्रपत्रां में तिथि अंकना हेतु राजा रुद्रचंद का अनुकरण नहीं किया। संभवतः रजवारों को ताम्रपत्र उत्कीर्ण कराने की पूर्ण स्वतंत्रता थी।
3- पारिवारिक शासन-
कुमाऊँ के चंद राजा रुद्रचंद के शासन काल में रायपाल प्रथम अधीनस्थ शासक थे, जिन्होंने सरयू पूर्व क्षेत्र पर सन् 1581 से 1588 ई. तक शासन किया। रायपाल की हत्योपरांत गंगोली सहित सरयू पूर्व क्षेत्र पर अस्कोट-पाल वंश के पारिवारिक सदस्यों ने क्षेत्र विभाजन और राज्यपाल नियुक्ति के सिद्धान्त पर शासन किया था। इस शासन का प्रभाव कुमाऊँ की सांस्कृतिक विरासत में देख सकते हैं। सरयू पूर्व कुमाऊँ क्षेत्र के प्रमुख संक्रांति पर्व जैसे- घृत और घुघुतिया, शेष कुमाऊँ से एक दिन पहले क्रमशः श्रावण और पौष माह के अंतिम दिवस (कुमाउनी में मसन्त) को मनाया जाता है। इसका मुख्य कारण सरयू पूर्व क्षेत्र में चंद कालीन दोहरी शासन व्यवस्था या रजवार शासन था। रजवार शासक संक्रांति पर्व पर अल्मोड़ा चंद राजदरबार में उपहार सहित उपस्थित रहते होंगे। अतः उनके द्वारा शासित सरयू पूर्व राज्य में एक दिन पूर्व ही विशेष उपहार वाले त्यौहार मनाने की परम्परा अस्तित्व में आयी, जो आज भी प्रचलन में है।
4- चार चौधरी पंचायत व्यवस्था-
गंगोली में रजवार सामन्तीय शासन की मुख्य विशेषता पंचायत व्यवस्था थी, जिसे चार चौधरी व्यवस्था भी कहा जाता था। चार चौधरी ग्राम स्तर के पदाधिकारी थे। रजवार शासक आनन्दचंद रजवार और पृथ्वीचंद रजवार के ताम्रपत्रों से चार चौधरी पंचायत व्यवस्था का उल्लेख प्राप्त होता है। जबकि इतिहासकार कुमाउनी ‘चौधरी’ जाति को आरम्भिक चंद कालीन ‘चार बूढ़ा’ व्यवस्था से भी संबंध करते हैं। रजवार शासकों के ताम्रपत्रों से स्पष्ट होता है कि चम्पावत के ’चार बूढ़ा’ के स्थान पर गंगोली में ’चार चौधरी’ प्रथा प्रचलन में थी। आनन्दचंद के किरौली ताम्रपत्र में उल्लेखित चार चौधरी में दो कार्की, एक बिष्ट और एक बाफिला जाति का मुखिया सम्मिलित था। वर्तमान में भी कार्की, बिष्ट और बाफिला जाति के लोग किरौली के आस पास के गांवों में निवास करते हैं। चंदों से वैवाहिक संबंध, ‘चार चौधरी’ प्रथा और परम्परागत ताम्रपत्र लेखन शैली में परिवर्तन न करना इत्यादि कारणों के आधार पर कह सकते हैं कि गंगोली के रजवार पूर्णतः स्वायत्य शासक थे।
गंगोली में सामन्ती शासन का अंत-
बालो कल्याणचंद द्वारा गंगोली हेतु स्थापित राज्य पद ’गंगालो’ का उल्लेख सन् 1581 ई. से 1622 ई. तक निर्गत हुए चंद ताम्रपत्रों से प्राप्त नहीं होता है। जबकि दिलीपचंद के कुमौड़ आदेश पत्र शाके 1545/सन् 1623 ई. के साक्षियों में राज्य पद गंगोला को पुनः स्थान दिया गया। राजा लक्ष्मीचंद के मृत्यूपरांत अल्मोड़ा में राजसिंहासन हेतु षडयंत्र तथा उच्च पदों के लिए संघर्ष का एक विशेष मन्वंतर चल पड़ा था। इस संघर्ष में पीरू गुसाईं, विनायक भट्ट और सुमतु कार्की (शकराम कार्की या शुर्त्ताण कार्की) ने अल्मोड़ा की सत्ता पर नियंत्रण कर लिया था।
पीरू गुसाईं, विनायक भट्ट और सुमतु कार्की सन् 1621 ई. से कुमाऊँ के इतिहास में शासक निर्माता की भूमिका में थे। राजा विजयचंद की हत्या, कुंवर नीला गुसाईं को अन्धा करना, त्रिमलचंद को चंद राजसिंहासन पर आसित करना इत्यादि कृत्यों के कारण इन्हें शासक निर्माता ’त्रिमूर्ति’ कहा जाता है। किरौली और गंणाई-गंगोली ताम्रपत्रों में उल्लेखित पीरु गुसाईं ने गंगोली में रजवार शासकों के अधीन कार्य किया था। जब सन् 1621 ई. में चंद राजसत्ता इनके हाथों में आ गयी तो, इन्होंने गंगोली से सामन्ती या रजवार शासन का अंत कर दिया था। सामन्ती शासन के स्थान पर ’गंगोला’ नामक अधिकारी पुनः गंगोली के शासन हेतु नियुक्त कर दिया गया। इसकी पुष्टि कुमौड़ आदेश पत्र, मारा धड़ा-2 भी करता है, जिसमें ’गगोला’ या ‘गंगोला’ और छः थर राज्य पद का उल्लेख किया गया है। गंगोली या सरयू पूर्व क्षेत्र पर सन् 1623 ई. से रजवार शासन सदैव के लिए समाप्त हो गया था।
✐ डॉ. नरसिंह