उत्तराखण्ड के अभिलेख और कुशली शब्द का बहुत ही घनिष्ठ संबंध है। यह एक ऐसा शब्द है, जो समाज में आपसी संबंधों को सशक्त बनाता है। इसके अतिरिक्त यह शब्द उत्तराखण्ड के प्राचीन अभिलेखों में उत्कीर्ण लेख हेतु भी उपयोगी था। पाण्डुलिपि या अभिलेखीय साक्ष्य प्राचीन इतिहास के महत्वपूर्ण स्रोत हैं। साहित्यिक और धार्मिक पुस्तकों तथा अभिलेखों को लिखने हेतु एक विशिष्ट शैली के साथ-साथ नवीन शब्दों का प्रयोग प्राचीन इतिहास की एक विशेषता रही है। आरम्भिक मानव ने हजारों वर्ष पहले गुहाओं की चित्रकला में भी एक विशिष्ट शैली का प्रयोग किया। अल्मोड़ा के प्राचीन गुहा स्थल ‘लखुउडियार’ से एक विशिष्ट शैली के चित्र प्राप्त होते हैं। इस गुहा के चित्रों को देखने से प्रतीत होता है कि ‘‘चित्रण का प्रमुख विषय सम्भवतः समूहबद्ध नर्तन था।’’ इस शैलाश्रय के चित्र चट्टान की दीवार-छत पर गेरुवे, लाल, काले और सफेद रंग से बनाये गये हैं। इन चित्रों को खींचने में मुख्यतः दो प्रकार के ज्यामितीय रेखाओं का प्रयोग किया गया है- सरल और बक्र रेखा। बक्र रेखाओं को तरंगित रेखायें भी कह सकते हैं।
प्राचीन काल और प्रचलित शब्द –
मानव ने लगभग आठ हजार वर्ष पूर्व कृषि और पशुपालन करना सीख लिया था। विद्वान भारतीय उपमहाद्वीप पर 4700 वर्ष पूर्व सैंधव सभ्यता के कालखण्ड को निर्धारित करते हैं। इस सभ्यता के लोगों ने लेखन की चित्रात्मक शैली का प्रयोग किया। लगभग 3500 वर्ष पूर्व वैदिक काल का आरम्भ हुआ। सर्वप्रथम ऋग्वेद की रचना हुई। भारतीय उपमहाद्वीप की प्रथम पुस्तक ़ऋग्वेद में कुल 1028 सूक्त हैं। मंत्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है। 1028 सूक्तों में लगभग 10462 मंत्र समाहित हैं, जिनमें सर्वाधिक मंत्रों में ‘इन्द्र’ का उल्लेख किया गया है। इस काल का एक मात्र अभिलेखीय साक्ष्य ‘बोगजकोई’ अभिलेख है, जो 3400 वर्ष प्राचीन है। मध्य एशिया से प्राप्त इस अभिलेख में भी इन्द्र का उल्लेख मित्र, वरण और नासत्य के साथ किया गया है। ऋग्वैदिक काल के सर्वाधिक मान्य देवता इन्द्र थे या इस कालखण्ड में लेखन का सर्वाधिक उपयोगी शब्द ‘इन्द्र‘ था।
ऋग्वेद में व्यक्तिवाद के प्रतीक इन्द्र महत्वपूर्ण थे, तो यजुर्वेद में यज्ञ, हवन और ब्राह्मण की उपयोगिता सामूहिकता को परिलक्षित करते हैं। उपनिषदों में आत्म और ब्रह्म महत्वपूर्ण शब्द थे, वहीं भगवद् गीता में कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग में सर्वाधिक उपयोगी शब्द ‘कर्मयोग’ था। छठी ईस्वी पूर्व का भारतीय इतिहास महावीर और महात्मा बुद्ध के वैचारिक क्रांति का इतिहास था। जैन ग्रंथों में सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि में सर्वाधिक महत्व ‘अहिंसा’ को दिया गया, तो बौद्ध ग्रंथों में सत्य, अहिंसा और संघ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण ‘संघ’ था। महाजनपद काल के शासकों ने ‘विहार’ शब्द को सबसे अधिक लोकप्रिय बनाया था। मौर्य शासक अशोक का शासन काल शिलालेखों का स्वर्ण काल था। इस कालखण्ड में ‘धम्म’ शब्द सम्राट अशोक के शासन और शिलालेखों का मूल मंत्र था। चाणक्य ने अर्थशास्त्र में ‘युक्त’ नामक शब्द को महत्वपूर्ण स्थान दिया, जिसका संबंध एक राजकीय अधिकारी से था।
शुंग शासन काल में ‘अश्वमेध यज्ञ’ महत्वपूर्ण शब्द बन चुका था। इस काल के अभिलेखों, साहित्यिक और धार्मिक ग्रंथों से स्पष्ट होता है कि शुंग शासक अश्वमेध यज्ञ किया करते थे। ‘‘अयोध्या अभिलेख में पुष्यमित्र शुंग को दो अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करने वाला (द्विरश्वमेधयाजिनः) कहा गया है।’’ सातवाहन काल में ‘स्तूप’ और ‘चैत्यगृहों’ का दक्षिणापथ के राज्य में विस्तार हुआ। सातवाहन कालीन गुहाएं महाराष्ट्र के नासिक से खोजी जा चुकी हैं। तीसरी-चौथी शताब्दी के शक शासक ‘महाक्षत्रप’ कहलाते थे। कुषाण काल से ‘शक संवत्’ और ‘महाराजस’ (महाराज) जैसे शब्द प्रचलन में हैं।
चौथी-पांचवीं शताब्दी का गुप्त काल साहित्य और कला की दृष्टि से भारतीय इतिहास का स्वर्ण काल कहलाता है। समुद्र गुप्त के प्रयाग प्रशस्ति में ‘आर्यवर्त’ और ‘कर्तृपुर’ का उल्लेख किया गया है। उत्तर भारत को प्रयाग प्रशस्ति में आर्यवर्त और वर्तमान उत्तराखण्ड को कर्तृपुर कहा गया। गुप्त काल को जातिगत व्यवस्था परिर्वतन का काल भी कहा जाता है। इस काल में ‘कायस्थ’ नामक जाति का उदय हुआ, जिनका मुख्य कार्य लेखन का था।
सातवीं शताब्दी के कन्नौज शासक हर्ष के ताम्रपत्रों से सामन्त और महासामन्त नामक नवीन पदाधिकारियों का उल्लेख प्राप्त होता है। हर्ष के पूर्ववर्ती पौरव वंशीय नरेशों के ब्रह्मपुर (उत्तराखण्ड) से निर्गत ताम्रपत्रों से सामन्त और महासामन्त नामक पदाधिकारियों का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। जबकि उत्तराखण्ड के कार्तिकेयपुर से निर्गत ताम्रपत्रों से सामन्त और महासामन्त का उल्लेख प्राप्त होता है। राजा हर्ष के सैनिक शिविरों तथा उत्तराखण्ड के दो राज्यों ब्रह्मपुर और कार्तिकेयपुर से निर्गत ताम्रपत्रों में उल्लेखित कुछ राज्याधिकारी के नाम सुमेलित अवश्य होते हैं। लेकिन उत्तराखण्ड के ब्रह्मपुर, कार्तिकेयपुर और बागेश्वर अभिलेख का एक शब्द बहुत ही महत्वपूर्ण है, जो इन अभिलेखों की लेखन शैली को विशिष्ट पहचान देता है। वह शब्द ‘कुशली’ है। इस शब्द को अभिलेख निर्गत कर्ता शासक अपने नाम के साथ एक विशेष स्थान पर उत्कीर्ण करवाते थे।
उत्तराखण्ड के अभिलेख और कुशली-
छठी शताब्दी के आस पास उत्तराखण्ड का सबसे शक्तिशाली राज्य ‘पर्वताकार’ था, जिसकी राजधानी ब्रह्मपुर थी। ब्रह्मपुर के पौरव शासक द्युतिवर्म्मा के तालेश्वर ताम्रपत्र की पंक्ति- ‘‘परम भट्टारक महाराजाधिराज श्रीद्युतिवर्म्मा कुशली पर्व्वताकार-राज्ये (ऽ)‘‘ तथा इस राजा के पुत्र विष्णुवर्म्मा के तालेश्वर ताम्रपत्र की पंक्ति- ‘‘शौर्य धैर्य स्थैर्य गाम्भीर्यौदार्य गुणाधिष्ठित मूर्तिश्चक्क्रधर(ः)इव प्रजानामार्तिहरः परमपितृभक्तः परमभट्टारक महाराजाधिराज श्रीविष्णुवर्म्मा समुपचित कुशल व (ब)ल-वीर्यः पर्व्वताकार’’ के वाक्यांश में भी ‘कुशली’ शब्द को विशेष स्थान पर उत्कीर्ण किया गया है।
सातवीं शताब्दी के कन्नौज शासक हर्ष के मधुबन ताम्रपत्र की पंक्ति इस प्रकार से है- ‘‘परममाहेश्वरो महेश्वर इव सर्व्वसत्वानुकम्पी परमभट्टारकमहाराजाधिराज श्रीहर्ष श्रावस्ती भुक्तौकुण्डधानी।’’ इसी प्रकार हर्ष के बांसखेड़ा ताम्रपत्र की पंक्ति- ‘‘परममाहेश्वरो महेश्वर इव सर्व्वसत्वानुकम्पी परमभट्टारकमहाराजाधिराज श्रीहर्ष अहिच्छन्नाभुक्तावंगदीय’’ के वाक्यांश में राजा हर्ष और भुक्ति (प्रांत) के मध्य में ‘कुशली’ शब्द अनुपस्थित है।
नौवीं-दशवीं शताब्दी के कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के राज्यारोहण के 21 वें वर्ष में माघ माह के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि को निर्गत ताम्रपत्र की दशवीं पंक्ति इस प्रकार से है- ‘‘वशीकृत गोपालनानिश्चलीकृत धराधरेन्द्रः परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीमल्ललितशूरदेव कुशली अस्मिन्नेव श्रीमत्कार्तिकेयपुर विषयेसम-।’’ यहाँ पर ललितशूरदेव और कार्तिकेयपुर विषय के मध्य ‘कुशली’ शब्द महत्वपूर्ण है। इसी प्रकार दशवीं शताब्दी के कार्तिकेयपुर उद्घोष वाले पद्मटदेव के 25 वें राज्य वर्ष में निर्गत ताम्रपत्र में ‘’श्रीमत्पद्मटदेवः कुशली टंकणपुर विषये’’ उत्कीर्ण है। इस वाक्यांश में भी राजा और टंकणपुर विषय के मध्य ‘कुशली’ शब्द अपनी उपयोगिता को सिद्ध करता है। पद्मटदेव के पुत्र सुभिक्षराज के ताम्रपत्र की पंक्ति- ’’श्रीमत् सुभिक्षराज देवः कुशली टंकणपुर विषये अन्तरांगविषये च’’ के वाक्यांश में भी ‘कुशली’ शब्द अपनी उपयोगिता को सिद्ध करता है।
बागेश्वर शिलालेख में भी अभिलेख उत्कीर्ण कर्ता शासकों ने जयकुल भुक्ति के साथ अपना नाम उत्कीर्ण करवाया। जैसे- ‘’महाराजाधिराज परमम्बरशाय स्वैरं स्वैरं ददौ कुशली जयकुलभुक्ति’’ और ‘’श्रीत्रिभुवनराजदेवः कुशली जयकुलभुक्ति’‘। इस शिलालेख का ‘कुशली’ शब्द ही स्पष्ट करता है कि बागेश्वर शिलालेख एक नहीं तीन पृथक-पृथक राजवंशों का अभिलेख था। इस शिलालेख के प्रथम उत्कीर्ण कर्ता शासक ‘…ददौ’ थे, जिनके पिता मसन्तनदेव को विद्वानों ने प्रथम कत्यूरी शासक कहा। संभवतः ये कत्यूर घाटी के शासक थे। इस शिलालेख में मसन्तनदेव और उनकी महारानी साज्यनरा देवी का भी उल्लेख किया गया है। इस शिलालेख के द्वितीय उत्कीर्ण कर्ता त्रिभुवनराजदेव थे, जिनके वंश के मूल पुरुष खर्परदेव थे। त्रिभुवनराजदेव के लेखांश में उनके दादा खर्परदेव के साथ दादी कल्याणदेवी तथा पिता कल्याणदेव के साथ माता लद्धादेवी का भी नाम उत्कीर्ण किया गया है। लेकिन इस अभिलेख को उत्कीर्ण करने वाले शासकां ददौ और त्रिभुवनराजदेव के साथ उनकी महारानी का नाम इसमें उत्कीर्ण नहीं है।
इस शिलालेख के तृतीय उत्कीर्ण कर्ता शासक भूदेवदेव थे, जिनकी वंशावली निम्बर से आरंभ होती है। निम्बर के पौत्र कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव ही राजा भूदेवदेव के पिता थे। भूदेवदेव के लेखांश में परदादा निम्बर के साथ परदादी नासूदेवी, दादा इष्टगणदेव के साथ दादी धरादेवी तथा पिता ललितशूरदेव के साथ माता सामदेवी का नाम भी उत्कीर्ण किया गया है। राजा भूदेवदेव की महारानी का नाम शिलालेख में उत्कीर्ण नहीं है।
बागेश्वर शिलालेख के तृतीय उत्कीर्ण कर्ता शासक भूदेवदेव का अभिलेख लेखन शैली में पिता ललितशूरदेव के ताम्रपत्र की प्रतिलिपि प्रतीत होता है। लेकिन प्रकाशित हो चुके इस अभिलेख में उनके और जयकुल भुक्ति के मध्य ‘कुशली’ शब्द अनुपस्थित है। बागेश्वर शिलालेख का अनुवाद हिमालयन गजेटियर के लेखक एडविन थॉमस एटकिंसन ने करवाया था। सन् 1936 ई. तक यह शिलालेख बागेश्वर मंदिर से गायब हो चुका था। इस तथ्य की पुष्टि पंडित बद्रीदत्त पाण्डे अपनी पुस्तक ‘कुमाऊँ का इतिहास’’ में करते हैं। संभवतः भूदेवदेव और जयकुलभुक्ति के मध्य का ’कुशली’ शब्द इस प्राचीन शिलालेख में पढ़ने में नहीं आया हो। उक्त सभी उत्तराखण्ड के शासकों के नाम और राज्य प्रशासनिक क्षेत्र भुक्ति या विषय के मध्य ’कुशली’ शब्द प्रयुक्त किया गया। इस आधार पर कह सकते हैं कि उत्कीर्ण कर्ता या आदेश प्रेषित कर्ता शासक के पश्चात ’कुशली’ शब्द प्रयुक्त करने की परम्परा प्राचीन उत्तराखण्ड में प्रचलित थी। पड़ोसी देश नेपाल के प्राचीन अभिलेखों में भी ‘कुशली’ शब्द प्रयुक्त करने परम्परा थी।
ब्रह्मपुर, कार्तिकेयपुर और बागेश्वर अभिलेख में ’कुशली’ शब्द अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता था। ‘कुशली’ शब्द के संबंध में पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘ललितशूरदेव के ताम्रपत्र में एक स्थल में कुशली शब्द आया है उसके मानी अनूपशहर के विद्वान व संस्कृत के आचार्य कविरत्न पं. अखिलानन्दजी ने हमको ’’कुश के वंशवाला’’ होना भी बताया है। कुश रामचन्द्र के पुत्र थे और सूर्यवंशी थे।’’ लेकिन ’कुशली’ शब्द की व्युत्पत्ति ’कुशल’ शब्द में ’ई’ प्रत्यय (कुशल $ ई) लगाने से हुई है। जैसे- देश से देशी, सूत से सूती। ’कुशल’ शब्द संस्कृत का पुल्लिंग/विशेषण शब्द है। विशेषण रूप में कुशल का अर्थ- चतुर, प्रवीण, प्रसन्न तथा पुल्लिंग रूप में- मंगल, शिव, गुण, चतुरता होता है। ’ई’, संस्कृत का गुणवाचक प्रत्यय है। अतः कुशल के स्थान पर ’कुशली’ शब्द को ताम्रपत्रों/शिलालेखों में प्रयुक्त किया गया। कुछ वर्षों पूर्व तक पत्रों में ‘‘कुशल से हूँ, आप भी कुशल से होंगे’’ ही लिखा करते थे।
’कुशली’ शब्द की अभिलेखीय विशेषताएं-
1- ’कुशली’ शब्द का उपयोग मध्य हिमालय क्षेत्र के ताम्रपत्रों तथा शिलालेखों में शासक और स्थान (राज्य/भुक्ति या विषय) के मध्य किया जाता था।
2- ’कुशली’ शब्द का प्रयोग अभिलेख उत्कीर्ण कर्ता शासक के उपरांत किया जाता था। जबकि अभिलेख में उत्कीर्ण अन्य शासकों के साथ ’कुशली’ शब्द प्रयुक्त नहीं किया जाता था।
3- ‘कुशली’ शब्द वाली पंक्ति से अन्योत्तर पंक्ति में अभिलेख उत्कीर्ण कर्ता शासक अपने वंश के राजाओं के साथ उनकी महारानी का नाम भी उत्कीर्ण करवाते थे। जबकि उत्कीर्ण कर्ता शासक स्वयं की महारानी का नाम अपने नाम के साथ उत्कीर्ण नहीं करवाता था। अपने वंशजों का नाम रानी सहित उत्कीर्ण करने की परम्परा राजा हर्ष के ताम्रपत्रों में भी देखने को मिलती है।