1-ताम्रापत्रारंभ-
बांसखेड़ा और मधुवन ताम्रपत्र का प्रारंभिक वाक्यांश- ‘‘सिद्धम्।। स्वस्ति(।।) महानौहस्त्यश्वजयस्कन्धावार’’ एक ही है। ‘सिद्धम्’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘सिद्ध’ शब्द से हुई है, जो संस्कृत का विशेषण शब्द है, जिसका अर्थ- प्रमाणित, संपादित, प्राप्त, उपलब्ध और प्रयत्न में सफल आदि होता है। जबकि सिद्धम का अर्थ- धन्य है, उत्तम और पूरा किया होता है। सिद्धम, प्राचीन भारत में प्रचलित एक लिपि भी थी, जिसे ‘सिद्धमात्रिका’ भी कहते हैं। इसका प्रचलन भारत 600 ई. से 1200 ई तक के मध्य था। इस लिपि का प्रयोग संस्कृत लिखने हेतु किया गया था। 2270 वर्ष पूर्व सम्राट अशोक के अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण किये गये थे। कालान्तर में ब्राह्मी लिपि से ‘देवनागरी’, ‘शारदा’ और ‘सिद्धम’ लिपि की व्युत्पत्ति हुई। ‘स्वस्ति’ संस्कृत का अव्यय शब्द है, जिसका अर्थ कल्याण और ब्रह्मा की एक पत्नी का नाम भी होता है। स्वस्ति का सबसे प्राचीन उल्लेख ऋग्वेद से प्राप्त होता है। प्रारंभिक वाक्यांश में आये महानौहस्त्यश्वजयस्कन्धावार को इस प्रकार से पढ़ सकते हैं- महा नौ (नाव) हस्ति (हाथी) अश्व (घोड़ा) जय और स्कन्धावार। ‘स्कन्धावार’ संस्कृत का पुल्लिंग शब्द है, जिसका अर्थ राजा का सैन्य शिविर होता है। बांसखेड़ा और मधुबन ताम्रपत्र क्रमशः वर्द्धनमानकोटि तथा कपित्यिका सैन्य शिविर से निर्गत किये गये थे।
2- राजवंशावली-
बांसखेड़ा और मधुबन ताम्रपत्रों में हर्ष की राजवंशावली का इस प्रकार से वर्णन किया गया है- ‘‘महाराजश्रीनरवर्द्धनस्तस्यपुत्रस्तत्पादा नुध्यातश्श्रीवज्रिणीदेव्यामुत्पन्नःपरमादित्यभक्तोमहाराजश्रीराज्यवर्द्धनस्तस्य पुत्रस्तत्पादानुध्यातश्श्रीमदप्सरोदेप्यामुत्पन्नः परमादित्यभक्तोमहाराजश्रीमदादित्यवर्द्धनस्तस्यपुत्रस्तत्पादानुध्यातश् श्रीमहासेनगुप्तादेव्यामुत्पन्नश्चतुस्समुद्रातिक्क्रान्तकीर्ति प्रतापानुरागोपनयान्यराजोवर्ण्णाश्रमव्यवस्थापनप्रवृत्तचक्रएक चक्ररथइवप्रजानामर्तिहरःपरमादित्यभक्तपरमभट्टारक महाराजाधिराजश्रीप्रभाकरवर्द्धनस्तस्यपुत्त्रस्तत्पादानुध्यार्तास्सत यशप्रतानविच्छुरितसकलभुवनमण्डलपरिगृहीतधनदवरुणेन्द्र प्रभृतिलोकपालतेजास्सत्पथोपार्ज्जितानेकद्रविणभूमिप्रदान संप्रीणितार्थिहृदयो(ऽ)तिशयतिपूर्व्वराजचरितोदेव्याममलयशोमत्या (त्यां)श्रीयशोमत्यामुत्पन्नःपरमसौगतस्सुगतइव परहितैकरतः परमभट्टारकमहाराजाधिराज श्रीराज्यवर्द्धनः।’’
भावार्थ-
‘‘एक महाराज नवर्धन हुए। उनकी रानी श्री वज्रिणी देवी से महाराज राज्यवर्धन उत्पन्न हुए जो उनके चरणों के ध्यान में रत तथा सूर्य के महान भक्त थे। उनकी महिषी अप्सरो देवी से महाराज आदित्यवर्धन का जन्म हुआ जो अपने पिता के चरणों के ध्यान में रत तथा सूर्य के महान भक्त थे। उनकी महिषी महासेनगुप्ता देवी से उनके एक पुत्र परमभट्टारक महाराजाधिराज प्रभाकरवर्धन उत्पन्न हुए। वे भी अपने पिता के ध्यान में रत तथा सूर्य के परम भक्त थे। इस महाराज प्रभाकरवर्धन का यश चारों समुद्रों का अतिक्रमण कर गया। उनके प्रताप एवं प्रेम के कारण दूसरे शासक उनको सिर नवाते थे। इसी महाराज ने वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा हेतु अपना बल प्रयोग किया तथा सूर्य के समान प्रजा के दुखों का नाश किया। उनकी रानी निर्मल यश वाली यशोमती देवी से बुद्ध के परम भक्त तथा उन्हीं के समान परोपकारी परमभट्टारक महाराजाधिराज राज्यवर्धन उत्पन्न हुए। ये भी पिता के चरणों के ध्यान में रत तथा सूर्य के परम भक्त थे। इनकी उज्जवल कीर्ति के तंतु समस्त भुवनमण्डल में व्याप्त हो गये। उन्होंने कुवेर, वरुण, इन्द्र आदि लोकपालों के तेज को धारण कर सत्य एवं सन्मार्ग से संचित द्रव्य, भूमि आदि याचकों को देखकर उनके हृदय को संतुष्ट किया। इनका चरित्र अपने पूर्वगामी शासकों से बढ़कर था।’’
राजा हर्ष के पिता प्रभाकरवर्धन व दादा आदित्यवर्द्धन थे। आदित्यवर्द्धन के पिता राज्यवर्धन व दादा-दादी नरवर्द्धन-वज्रिणीदेवी थे। अर्थात हर्ष ने ताम्रपत्रां में पांच पीढ़ियों का उल्लेख किया। कुमाउनी सामाजिक जीवन में पिता के श्राद्धावसर पर पिता, दादा, परदादा, और दादा के दादा का नाम भी स्मरण करने की परम्परा प्रचलन में है। मेरे पिता श्री बिशनसिंह जब अपने पिता श्री प्रतापसिंह का श्राद्ध करते थे, तो अपने दादा श्री लालसिंह, परदादा श्री रूपसिंह और अपने दादा श्री लालसिंह के दादा श्री झूपसिंह का नाम स्मरण करते थे। सत्रहवीं शताब्दी में कुमाऊँ राज्य के महान राजा बाजबहादुरचंद ने भी अपनी वंशावली में पांच पीढ़ियों का उल्लेख किया। लेकिन हर्ष की भाँति पिता, दादा, परदादा के साथ माता, दादी और परदादी का उल्लेख उन्होंने अपनी वंशावली में नहीं किया। नौवी-दशवीं शताब्दी के कार्तिकेयपुर नरेशों ने पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों में राजवंशावली उत्कीर्ण करवाने में राजा हर्ष का अनुकरण किया।
हर्ष की राजवंशावली से स्पष्ट होता है कि नरवर्द्धन, राज्यवर्द्धन और आदित्यवर्द्धन ने महाराजा की उपाधि धारण की थी, जबकि हर्ष के पिता प्रभाकारवर्द्धन और ज्येष्ठ भ्राता राज्यवर्धन ने परमभट्टारक महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। ‘भट्टारक’ संस्कृत का पुल्लिंग और विशेषण शब्द है। उपाधि के प्रयुक्त भट्टारक विशेषण शब्द है, जिसका अर्थ- ‘माननीय’ और ‘पूज्य’ होता है। इस प्रकार परमभट्टारक का अर्थ सर्वोच्च माननीय या सर्वोच्च पूज्य है। आज भी सामान्य पत्र-व्यवहार में ‘परम पूज्यनीय’ एक आरंभिक वाक्यांश रहता है। हर्ष की राजवंशावली में माता यशोमती देवी ने भी परमभट्टारिका की उपाधि धारण की थी। कार्तिकेयपुर की राजवंशावली में रानी की उपाधि परमभट्टारिका के स्थान पर ‘महादेवी’ उत्कीर्ण है। ‘परमभट्टारिका का शाब्दिक अर्थ महादेवी होता है। अतः ‘महादेवी’ और ‘परमभट्टारिका’ एक प्रकार की उपाधि थी। हर्ष की राजवंशावली में मात्र उनकी माता की उपाधि ‘परमभट्टारक’ उत्कीर्ण की गयी है। जबकि कार्तिकेयपुर नरेश भूदेवदेव की राजवंशावली में सभी पूर्व रानियों की उपाधि ‘महादेवी’ उत्कीर्ण की गयी है।
हर्ष ने राजवंशावली में अपने ज्येष्ठ भ्राता राज्यवर्द्धन की बहुत प्रशंसा की। इन्हें अपने पूर्वजों में सबसे चरित्रवान तथा माता-पिता और सूर्य का भक्त बतलाया। राज्यवर्द्धन की प्रशंसा वाक्यांश में ‘लोकपाल’ नामक महत्वपूर्ण शब्द भी प्रयुक्त किया गया। लोकपाल हेतु अंग्रेजी में ‘ओम्बुड्समैन’/ ‘ओम्बड्समैन’ शब्द प्रयुक्त किया जाता है, जिसे सर्वप्रथम स्वीडन के संविधान ने अठारहवीं शताब्दी में अपनाया था। ‘‘वर्तमान में लोकपाल उच्च सरकारी पदों पर आसीन व्यक्तियों द्वारा किये जा रहे भष्ट्राचार की शिकायतें सुनने एवं उस पर कार्यवाही करने हेतु एक निमित्त पद है।’’ जन भावनाओं और ‘अन्ना हजारे आन्दोलन’ को देखते हुए आधुनिक भारत में 18 दिसम्बर, सन् 2013 को भारतीय संसद ने ‘लोकपाल और लोकायुक्त कानून पारित किया। 19 मार्च, 2019 को भारत का प्रथम लोकपाल ‘पिनाकी चन्द्र घोष को नियुक्त किया। लेकिन सातवीं शताब्दी के राजा हर्ष की राजवंशावली में कुबेर, वरुण, इन्द्र आदि देवताओं को ‘लोकपाल’ कहा गया। राजवंशावली के अनुसार राज्यवर्द्धन ने लोकपालों का तेज धारण कर सत्य और सुमार्ग से अर्जित द्रव्य, भूमि आदि को याची जनों में दान कर उन्हें सन्तुष्ट किया।
हर्ष ने अपने ज्येष्ठ भ्राता राज्यवर्द्धन को ‘परमसौगत’ कहा। ‘सौगत संस्कृत का पुल्लिंग शब्द है, जिसका अर्थ- बौद्ध, अनीश्वरवादी और नास्तिक होता है। परमसौगत उपाधि को बौद्ध धर्म के महान संरक्षण और प्रचार-प्रसार करने वाले से संबद्ध कर सकते हैं। इस आधार पर कह सकते हैं कि राज्यवर्द्धन की राजधानी थाणेश्वर (स्थानीश्वर, हरियाणा) छठवींं शताब्दी के अंत और सातवीं शताब्दी के आरंभिक छः वर्षों में बौद्ध धर्म का एक प्रमुख केन्द्र था, जिसकी पुष्टि चीनी यात्री ह्वैनसांग की यात्रा से भी होती है। नौवीं शताब्दी में बंगाल के पाल वंशीय शासक देवपाल को भी ‘परमसौगत’ कहा गया। इसलिए बौद्ध लेखक तारानाथ उसे बौद्ध धर्म की पुनः स्थापना करने वाला कहता है। इसी कालखण्ड में देवपाल के प्रत्युत्तर में उत्तराखण्ड के कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के पुत्र राजा भूदेवदेव ने ‘परमब्राह्मणपरायण परमबुद्धश्रमणरिपु’ की उपाधि धारण की।
हर्ष के बांसखेड़ा और मधुबन ताम्रपत्र की राजवंशावली के अंतिम भाग में राज्यवर्द्धन की वीरता और मृत्यु से संबंधित चार पंक्तियां-
राजानो युधि दुष्टवाजिन इव श्रीदेवगुप्तादय
कृत्वा येन कशाप्रहारविमुखाः स्सर्व्वेसमं संयताः।
उत्खाय द्विषतो विजित्य वसुधाड्.कृत्वा प्रजानां प्रियं
प्राणनुज्झितवानरातिभवने सत्यानुरोधेन यः ।।1।।
भावार्थ- ‘‘जिस प्रकार दुष्ट घोड़े को चाबुक के प्रहार से नियंत्रित किया जाता है, उसी प्रकार देवगुप्त आदि राजाओं को एक ही साथ युद्ध में दमन कर, अपने शत्रुओं को समूल नष्ट कर पृथ्वी को जीता तथा प्रजा का हित करते हुए सत्य का पालन करने के कारण शत्रु के भवन में प्राण त्याग दिया।’’
हर्ष की उपाधियों के संबंध में ताम्रपत्र में लिखा गया है- ‘‘तस्यानुजस्तत्पादानुध्यातः परममाहेश्वरो महेश्वर इव सर्वससत्वानुकम्पी परमभट्टारकमहाराजाधिराजश्रीहर्षः’’ (‘‘इन्हीं महाराजा राज्यवर्द्धन के अनुज, उनके चरणों के ध्यान में रत, परम शैव तथा शिव के समान प्राणिमात्र पर दया करने वाले परमभट्टारक महाराजाधिराज श्री हर्ष’’)। जहाँ थानेश्वर के पुष्यभूति वंश के शासक (हर्ष के पूर्वज) सूर्य भक्त थे, वहीं कन्नौज शासक हर्ष शिव के परम भक्त थे।
3- प्रशासनिक विभाजन एवं राज्य पदाधिकारी-
हर्ष के बांसखेड़ा ताम्रपत्र में उत्कीर्ण ‘‘अहिच्छत्राभुक्तावंगदीय वैषयिकपश्चिमपथकसम्बद्धमर्क्कटसागरे’’ वाक्यांश से स्पष्ट होता है कि हर्ष का राज्य भुक्ति, विषय और ग्राम में विभाजित था। उनका मधुबन ताम्रपत्र भी इस तथ्य की पुष्टि करता है, जिसमें ‘‘श्रावस्तीभुक्तौकुण्डधानीवैषयिकसोमकुण्डिकाग्रामे’’ वाक्यांश उत्कीर्ण है। बांसखेड़ा और मधुबन ताम्रपत्र क्रमशः उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर और मऊ से प्राप्त हुए हैं। वर्तमान के इन जनपदों को इस ताम्रपत्र में क्रमशः अहिच्छत्र और श्रावस्ती भुक्ति कहा गया। के.सी. श्रीवास्तव लिखते हैं-‘‘ प्रारम्भिक बौद्ध साहित्यों में बुद्ध के समय के छः प्रसिद्ध नगरों का उल्लेख मिलता है- 1. चम्पा, 2. राजगृह, 3. श्रावस्ती, 4. साकेत, 5. कौशाम्बी, 6. वाराणसी। इनके अतिरिक्त वैशाली, हस्तिनापुर, अहिच्छत्र, मिथिला, प्रतिष्ठान, उज्जयिनी, मथुरा आदि भी प्रमुख नगर थे।’’ गुप्त काल में राज्य को भुक्ति कहा गया। अतः 2600 वर्ष प्राचीन नगर, 1000 वषों के उपरांत भुक्तियों में परिवर्तित हो गये। उक्त भुक्तियों के अतिरिक्त ‘अंगदीय’ और ‘कुण्डधानी’ विषय तथा मर्कटसागर एवं सोमकुण्डिका नामक ग्राम का उल्लेख हर्ष के ताम्रपत्रों में किया गया है।
हर्ष के ताम्रपत्र में उल्लेखित राज्याधिकारी महासामंत, महाराज, दौस्साधसाधनिक, प्रमातार, राजस्थानीय, कुमारामात्य, उपरिक, विषयपति के अतिरिक्त भट, चाट और सेवकों का उल्लेख मधुबन और बांसखेड़ा ताम्रपत्रों से प्राप्त होता है। ताम्रपत्र के अंत में दूतक, महाप्रमातार, महाक्षपटलाकरणाधिकृत और सामन्त नामक राज्यधिकारियां का भी उल्लेख प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त हर्ष के समकालीन लेखकों की पुस्तकां से दिविर, रणभाण्डागाराधिकरण, रणभाण्डगारिक, हट्टमति, करणिक, ग्रामाक्षपटलिक, महत्तर, लेखहारक, दीर्घाध्वग आदि राज्यधिकारियों का उल्लेख प्राप्त होता है।
हर्ष के ताम्रपत्रों से मात्र 12 राज्य पदाधिकारियों का उल्लेख प्राप्त होता है। इसका कारण यह हो सकता है कि इनके ताम्रपत्रों को सैन्य शिविरों से निर्गत किया गया था। अतः ताम्रपत्रों में उनके पदाधिकारी सीमित संख्या में उत्कीर्ण किये गये। जबकि नौवीं शताब्दी के कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के शासन काल में राज्याधिकारियों की संख्या को पंडित बद्रीदत्त पाण्डे 52 निर्धारित करते हैं, जो हर्ष से कहीं अधिक संख्या में थे। इसका कारण यह हो सकता है कि ललितशूरदेव के ’ताम्रपत्रां को राजधानी कार्तिकेयपुर की आमंत्रित सभा में उत्कीर्ण करवाया गया था, जहाँ राज्य के समस्त पदाधिकारी उपस्थित थे।