राजषड्यंत्र प्राचीन काल से राजतंत्र का एक निंदनीय पक्ष रहा है। प्राचीन धार्मिक ग्रंथों रामायण और महाभारत से भी राजषड्यंत्रों के उदाहरण प्राप्त होते हैं। दासी मंथरा को रानी कैकई को दो वरदानों और गंधार नरेश शकुनि का भांजे दुर्योधन को हस्तिनापुर राज्य के लिए भड़काना राजषड्यंत्रों का ही अंश था। कंस का अपने पिता से सत्ता हरण तथा रावण वध के पश्चात विभिषण का लंका का राजा बनना भी राजषड्यंत्र का ही हिस्सा था। इसी प्रकार छठी शताब्दी में मगध नरेश विम्बिसार के पुत्र आजातशुत्र ने सत्ता का हरण कर पिता को कारागार में डाल दिया। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक अपने सौ भाइयों की हत्या कर मगध के सिंहासन पर आसित हुआ। इस राजा के वंशजों में से एक और मौर्य वंश के अंतिम शासक बृहद्रथ की हत्या उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने कर मगध पर अधिकार कर लिया था। गुप्त काल में समुद्रगुप्त के ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त की हत्या कर, कनिष्ठ पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय ने राजसत्ता और रामगुप्त की पत्नी ‘ध्रुवस्वामिनी’ का हरण कर लिया था। इस वंश के स्कन्द गुप्त और गोविन्द के मध्य भी सत्ता के लिए विवाद हुआ था।
राजपूत काल में राजषड्यंत्रों से राज्यों को सुरक्षित रखने हेतु राजपूतों ने एक सम्मान सूचक पहचान स्थापित करने का प्रयास किया, जिसका परम सूत्र था- राजपूत पीठ पर प्रहार नहीं करते, वक्षस्थल पर प्रहार करते हैं। सल्तनत कालीन और मुगल कालीन इतिहास क्षण-क्षण में राजषड्यंत्रों का इतिहास था। हजारों वर्षों में राजतंत्र का सम्पूर्ण भारतीय इतिहास राजषड्यंत्रों से भरा-पड़ा था। हर राजवंश इस कैंसर रूपी रोग से ग्रस्त था। कुमाऊँ का चंद राजवंश भी राजतंत्र के कैंसर से सुरक्षित नहीं रह पाया। चंद वंश का आरम्भिक इतिहास एक माण्डलिक राज्य के रूप में चंपावत से आरंभ हुआ और सोलहवीं शताब्दी में यह राजवंश रुद्रचंददेव के नेतृत्व में सम्पूर्ण कुमाऊँ पर अधिकार करने में सफल हुआ। रुद्रचंददेव (1568-1597) के उत्तराधिकारी लक्ष्मीचंद (1597-1621) के मृत्यूपरांत यह राजवंश राजषड्यंत्र रूपी कैंसर से ग्रस्त हो गया। इस राजषड्यंत्र के कालखण्ड में लक्ष्मीचंद के एक पौत्र ‘बाजा’ का बाल्यकाल अल्मोड़ा के एक ब्राह्मणी के गृह में व्यतीत हुआ। राजषड्यंत्र और बालक बाजा के बाल्यकाल का विवरण विद्वानों ने इस प्रकार से किया।
पंडित बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार-
‘‘सन् 1625 ई. में श्रीशकराम कार्की, विनायक भट्ट और पीरु गुसाईं के नेतृत्व में हुए राजषड्यंत्र में राजा विजयचंद को राजभवन में नजरबंद कर दिया गया। चंद राजा विजयचंद के नजरबंदी का विरोध करने पर, कुँवर नीला गुसाईं की आंखें निकाल दी गईं। सभी चंद वंशीय गुसाइयों व रौतेलाओं को मारा गया। सौभाग्य से त्रिमलचंद व नारायणचंद क्रमशः गढ़वाल व नेपाल भागने में सफल हुए। कुँवर नीला गुसाईं के पुत्र ’बाजा’ को एक राजचेली ने कपड़े में लपेटकर, अपने पुरोहित चौंसार के श्रीधर्माकर तेवाड़ी की स्त्री के पास सौंप दिया। धर्माकर तेवाड़ी की स्त्री ने बाजा को छिपाकर, षड्यंत्रकारियों के हाथों से उस बालक की जान बचाने के साथ-साथ, उसका पालन-पोषण भी किया। षड्यंत्रकारियों ने राजा विजयचंद की हत्या कर दी। अंधे कुँवर नीला गुसाईं भी मर गये। कुँवर त्रिमलचंद ने सन् 1625 ई. में महर धड़े की मदद से चंद राजसत्ता प्राप्त कर ली।
राजा त्रिमलचंद ने राज गद्दी संभालते ही श्रीशकराम कार्की की हत्या करवा दी। विनायक भट्ट की आंखें निकलवा लीं। पीरु गुसाईं ने आत्म हत्या कर ली। त्रिमलचंद की कोई संतान न होने के कारण चंद वंश के बचे हुए वंशजों को खोजा गया। राजा त्रिमलचंद को नीला गुसाईं के पुत्र के जीवित होने की खबर प्राप्त हुई। राजा त्रिमलचंद ने चंद वंशज ’बाजा’ को सेवकों से राजमहल लाने को कहा। लेकिन तेवाड़ी ब्राह्मणी ने दाल में काला समझकर बालक बाजा का अपने यहाँ होना स्वीकार नहीं किया। राजा त्रिमलचंद स्वयं वहाँ गये। उस धर्मात्मा तथा सती-साध्वी स्त्री ने राजा से धर्मवचन देने को कहा और कसम खाने को बाध्य किया। राजा त्रिमलचंद से यह वचन लिया कि, राजा उसे युवराज बनावेंगे, मारेंगे नहीं। राजा ने हर तरह से सांत्वना देकर अभयदान दिया। इस प्रकार उस तेवाड़ी ब्राह्मण की धर्मपत्नी ने बालक बाजा को राजा त्रिमलचंद के हाथ सौंपा। राजा ने बालक बाजा को कुँवर बाजचंद के नाम से युवराज बनाया। यही बाजचंद, चंद इतिहास में राजा बाजबहादुरचंदेव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
राजा त्रिमलचंद की मृत्यु के बाद सन् 1638 ई. में कुँवर बाजचंद, राजाधिराज बाजबहादुरचंददेव के नाम से चंद राजा हुए। जिस तेवाड़ी ब्राह्मणी का दूध पीकर राजा बाजबहादुरचंद चौंसार में पले थे और जिसने राजा की सेवा बाल्यावस्था में की थी, उस ब्राह्मणी के बेटे का नाम पं. नारायण तेवाड़ी था। नारायण तेवाड़ी को राजा बाजबहादुर ने अपने पास बुलाया और बड़े भाई का दर्जा दिया। राजा ने नारायण तेवाड़ी से कहा तुम्हें क्या दूँ? नारायण तेवाड़ी ने कहा कि, जो दरजा बमनई में गुरु, पुरोहित पंत, पाण्डे का दरबार में समझा जाता है, उसी दरजे के ब्राह्मण तेवाडी भी गिने जावें। राजा ने मंजर किया और कारबारियों को आज्ञा दी कि, जिस काम में गुरु पुरोहित वर्ग के ब्राह्मण बुलाये जाते हैं, अब से उनके साथ श्री नारायण तेवाड़ी भी बुलाये जावें। तब से तेवाड़ी लोग अपना चौथा दरजा बताते हैं। नारायण तेवाड़ी के परिवार को राजा बाजबहादुरचंद ने ताम्रपत्र के द्वारा भूमि-दान की थी।’’
डॉ. रामसिंह के अनुसार-
‘‘त्रिमलचंद निस्संतान था। फलतः पिछले अनुभवों के आधार पर अपने उत्तराधिकारी की ढूँढ़-खोज उसने अपने जीवन में ही कर ली थी, ताकि व्यर्थ के रक्तपात से बचा जा सके। काफी ढूँढ़-खोज के बाद उसने ’बाजचंद गुसाईं’ को पा लिया। शाके- 1550 या सन् 1628 ई. के राई महर को दिए गए त्रिमलचंद के आदेश पत्र में उत्तराधिकारी के स्थान पर ’मधुकर लोला गोसाईं’ लिखा गया है, किंतु शाके 1557 या सन् 1635 ई. के फल्दाकोट, अल्मोड़ा से प्राप्त उसके ताम्रपत्र में स्पष्ट शब्दों में साक्षियों के क्रम में प्रथम स्थान पर जो उत्तराधिकारी का होता है, नारायन बाजबहादुर गुसाईं लिखा गया है। छाना गांव पिथौरागढ़ के सन् 1643 ई. के ताम्रपत्र में बाजबहादुरचंद ने अपने पूर्वज राजाओं कल्याणचंद, रुद्रचंद, लक्ष्मणचंद और नीलचंद का क्रमशः उल्लेख करते हुए अपने को नीलचंद का पुत्र बतलाया है।’’
राजषड्यंत्र काल का ताम्रपत्रीय परीक्षण-
त्रिमलचंद के शाके 1550 या सन् 1628 ई. के कुमौड़ आदेश पत्र के साक्षियों में ’मधुकर लोला गुसाईं’ का नाम उत्तराधिकारी तथा ’सुमतु कार्की’ का प्रधान पद के वरीयता क्रम में उत्कीर्ण किया गया है। इस ताम्रपत्र से स्पष्ट होता है कि चंद राज्य का उत्तराधिकारी सन् 1628 ई. में ’मधुकर लोला गुसाईं’ था। इस तथ्य की पुष्टि राजा विजयचंद द्वारा निर्गत शाके 1547 या 1625 ई. का ताम्रपत्र भी करता है, जिसे माघ सुदी 15, बुधवार को निर्गत किया गया था। इस ताम्रपत्र के साक्षी वरीयता क्रम प्रथम, द्वितीय और तृतीय स्थान पर क्रमशः पिरू लाला मधुकर गुसाईं, प्रधान सुमतु कार्की तथा विनायक भट्ट का नाम उत्कीर्ण है। अतः सन् 1528 ई. के कुमौड़ आदेश पत्र का मधुकर लोला गुसाईं तथा सन् 1625 ई. के माघ माह में निर्गत ताम्रपत्र में उल्लेखित पिरू मधुकर लाला गुसाईं एक ही व्यक्ति था।
राजा दिलिपचंद के उत्तराधिकारी और पुत्र विजयचंद का माघ सुदी 15, शाके 1547 या सन् 1625 ई. का ताम्रपत्र राजषड्यंत्र की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, जिसमें तीनों षड्यंत्रकारियों के नाम उत्कीर्ण हैं। यह ताम्रपत्र ऐसे समय में निर्गत किया गया था, जब राजषड्यंत्रकारियों के हाथों चंद राजा विजयचंद कठ-पुतली बना हुआ था। त्रिमूर्ति के नाम से कुख्यात पीरु गुसाईं, शकराम कार्की और विनायक भट्ट ने चंद राजसत्ता का पूर्णतः हरण कर लिया था, जिनका ताम्रपत्रों में क्रमशः पीरु लाला मधुकर गुसाईं, सुमतु कार्की एवं विनायक भट्ट नाम उत्कीर्ण किया गया। उक्त दोनों ताम्रपत्रों से स्पष्ट होता है कि पीरू गुसाईं सन् 1628 ई. तक चंद वंश का उत्तराधिकारी बना हुआ था, जो राज-षड्यंत्रकारियों का नेता था। पंडित बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार राजा त्रिमलचंद सन् 1625 ई. में चंद सिंहासन पर बैठते हैं और षड्यंत्रकारियों को दण्ड देते हैं। लेकिन कुमौड़ आदेश पत्रानुसार पीरु गुसाईं और सुमतु कार्की (शकराम कार्की) सन् 1628 ई. तक जीवित थे। लेकिन इस आदेश पत्र में तृतीय षड्यंत्रकारी विनायक भट्ट का नाम उत्कीर्ण नहीं होने से स्पष्ट है कि उसे दण्ड दिया जा चुका था।
सन् 1628 ई. के कुमौड़ आदेश पत्र से स्पष्ट होता है कि राजा त्रिमलचंद भी षड्यंत्रकारियों के नियंत्रण में चंद राज सिंहासन पर आसित हुए। निःसन्तान त्रिमलचंद के सम्मुख षड्यंत्रकारियों को दण्ड देने के साथ-साथ अपने उत्तराधिकारी को खोजने की भी समस्या थी। षड्यंत्रकारियों ने अधिकांश चंद वंशजों की हत्या कद दी थी और जो जीवित भी थे, तो वे पहचान छुपाकर दुर्गम क्षेत्रों में चले गये थे। षडयंत्रकारियों के कारण सन् 1628 ई. तक बालक ’बाजा’ या चंद वंशज की खोज की आवश्यकता राजा त्रिमलचंद को नहीं थी। अर्थात सन् 1628 ई. तक ’बाजा’ का पालन-पोषण अवश्य ही ’तेवाड़ी ब्राह्मणी’ ने किया था। ’तेवाड़ी ब्राह्मणी’ के घर में बालक ’बाजा’ को सन् 1628 ई. में लगभग छः-सात वर्ष हो चुके थे। क्योंकि राजषड्यंत्रों का आरंभिक चरण राजा दिलिपचंद के शासन काल में सन् 1621-22 से शुरू हो चुका था। राजषड्यंत्रकारियों का नेता पीरु गुसाईं सभी चंद वंशजों की हत्या करने के उपरांत स्वयं चंद वंश का उत्तराधिकारी बन चुका था। पीरु गुसाईं की आत्म हत्या तक राजा त्रिमलचंद उत्तराधिकारी की खोज करने में संकोचित रहा होगा।
शाके 1557 या सन् 1635 ई. के त्रिमलचंद के फल्दाकोट, अल्मोड़ा के ताम्रपत्र से स्पष्ट होता है कि, ’बाजबहादुरचंद’ का नाम उल्लेखित साक्षियों के वरीयता क्रम में उत्तराधिराकारी के स्थान पर था। संभवतः सन् 1635 ई. तक राजषड्यंत्रकारियों (पीरू गुसाईं व सुमतु कार्की) की हत्या राजा त्रिमलचंद ने करवा दी थी और बालक ’बाजा’, ’बाजचंद’ के नाम से चंद वंश का उत्तराधिकारी बन चुका था। निःसंतान और वृद्ध त्रिमलचंद की उत्तराधिकारी खोजने की समस्या का समाधान हो चुका था। इस तथ्य से एक और निष्कर्ष निकलता है कि ’तेवाड़ी ब्राह्मणी’ ने सन् 1635 ई. से बालक ’बाजा’ का पालन-पोषण अपने गृह में नहीं किया। ’बाजा’ नामक बालक अब युवराज बन चंद राज परिवार का सदस्य बन चुका था।
शाके 1565 या सन् 1643 ई. के ताम्रपत्र में बाजबहादुरचंद ने अपने वंश का उल्लेख दादा लक्ष्मीचंद और उनके दादा कल्याणचंद से किया। कुमाउनी श्राद्ध परम्परा में दादा के दादा तक नाम स्मरण करने की परम्परा अभी तक प्रचलन में है। बाजबहादुर चंद का यह ताम्रपत्र सिद्ध करता है कि नीला गुसाईं ही बालक ’बाजा’ या ’बाजहादुरचंद’ के पिता थे। जबकि राजा त्रिमलचंद के समक्ष बालक ’बाजा’ को नीला गुसाईं का पुत्र प्रमाणित करने का श्रेय ’तेवाड़ी ब्राह्मणी’ को जाता है। ’बाजा’ नामक बालक को ढूँढ कर उसे युवराज बनाने का श्रेय राजा त्रिमलचंद को जाता है।