उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास में मध्य हिमालय क्षेत्र के तीन राज्यों स्रुघ्न, गोविषाण और ब्रह्मपुर का विशेष उल्लेख किया गया है। स्रुघ्न की पहचान हरियाणा के अम्बाला और गोविषाण की पहचान उत्तराखण्ड के काशीपुर के रूप में हो चुकी है। अलेक्जैंडर कनिंघम ने लखनपुर वैराटपट्टन की पहचान ब्रह्मपुर से की। इसी लखनपुर वैराटपट्टन के निकट तालेश्वर गांव से ‘पौरव’ वंश के दो ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं, जिनमें राज्य वर्ष तिथि अंकित है। राज्य वर्ष तिथि के आधार पर इस राजवंश के कालखण्ड को निर्धारित नहीं किया जा सका है। इन दो ताम्रपत्रों में राज्य का नाम ‘पर्वताकार’ तथा राजधानी ब्रह्मपुर उत्कीर्ण है, जो सर्वश्रेष्ठ नगरी थी। चौखुटिया क्षेत्र के निकटवर्ती तालेश्वर गांव से प्राप्त ब्रह्मपुर के ताम्रपत्र, कनिंघम (1814-1893) के अभ्युक्ति की पुष्टि करते हैं।
पौरव ताम्रपत्रों से इस राजवंश के पांच शासकों के नाम ज्ञात हो सकें हैं। इनके नाम क्रमशः विष्णुवर्म्म, वृषणवर्म्म, अग्निवर्म्म, द्युतिवर्म्म और विष्णुवर्म्म द्वितीय हैं। पौरव शासक द्युतिवर्म्म के 5 वें राज्य वर्ष और विष्णुवर्म्म द्वितीय के 28 वें राज्य वर्ष के ताम्रपत्र से अनेक तथ्यात्मक सूचनाएं प्राप्त होती हैं। इन ताम्रपत्रों से राजा, राज्य और राजधानी के अतिरिक्त वंश, कुल देवता, उपाधियां, राज्य पदाधिकारी, कर व्यवस्था, भूमि के प्रकार और ग्राम-क्षेत्र के नाम प्राप्त होते हैं।
तालेश्वर ताम्रपत्रों के अनुसार ब्रह्मपुर के पौरव राज्य में पदाधिकारियों का वरीयता क्रम इस प्रकार से था- दण्ड-उपरिक, प्रमातार, प्रतिहार, कुमारामात्य, पीलुपत्यश्वपति, जयनपति, गज्जपति, सूपकारपति, नगरपति, विषयपति, भोगिक- भागिक आदि। इनके अतिरिक्त दूतक, संधिविग्रहिक, कोटाधिकरणि, सर्वविषय प्रधान, महासत्न्नपति, दिविरपति, देवद्रोण्यधिकृत, दाण्डवासिक, कटुक, प्रभृत्यनुजीविवर्ग, राजदौवारिक, पंचमहापातक, अग्निस्वामी आदि राज्य पदों का उल्लेख पौरव ताम्रपत्रों से प्राप्त होता है।
‘उपरिक’ गुप्त काल में भुक्ति (प्रांत) का अधिकारी होता था। पौरव राज्य में उपरिक को प्रथम वरीयता प्राप्त थी। जबकि सातवीं शताब्दी के कन्नौज शासक हर्ष के मधुबन और बाँसखेड़ा ताम्रपत्रों में ’उपरिक’ का वरीयता क्रम सातवां तथा उत्तराखण्ड के कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव, पद्मटदेव और सुभिक्षपुर नरेश सुभिक्षराजदेव के पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों में यह पदाधिकारी सत्रहवें वरीयता क्रमांक का राज्याधिकारी था। कार्तिकेयपुर नरेशों को नवीं-दशवीं शताब्दी का शासक माना जाता है। सातवीं शताब्दी में जो पदाधिकारी सातवें वरीयता क्रमांक पर था, वह नौवीं-दशवीं शताब्दी में सत्रहवें वरीयता क्रमांक का अधिकारी हो गया। उपरिक नामक पदाधिकारी के वरीयता क्रमांक में गिरावट से स्पष्ट होता है कि नौवीं-दशवीं शताब्दी में राज्य की केन्द्रीय शक्ति सर्वशक्तिमान थी। जबकि पर्वताकार राज्य में भुक्ति-शासक ‘दण्ड उपरिक’ को संभवतः राजा के समान दण्ड देने का अधिकार प्राप्त था। अतः भुक्तियों में विभाजित पौरव वंश का पर्वताकार राज्य एक संघीय राज्य था, जिसके केन्द्र में ब्रह्मपुर था।
‘उपरिक’ नामक राज्य पदाधिकारी के वरीयता क्रमांक के आधार पर हर्ष, कार्तिकेयपुर नरेशों और पौरव शासकों के शासन काल क्रम को भी निर्धारित कर सकते हैं। ब्रह्मपुर राज्य में उपरिक राज्याधिकारी की वरीयता क्रमांक प्रथम के आधार पौरव शासकों को हर्ष का पूर्ववर्ती और कार्तिकेयपुर नरेशों को परवर्ती कह सकते हैं। दण्ड उपरिक को प्रथम वरीयता देने से स्पष्ट होता है कि पौरव राज्य का शासन न्याय केन्द्रित था। जबकि सम्राट हर्ष और कार्तिकेयपुर नरेशों ने ‘सामन्त’ नामक पदाधिकारी को उच्च वरीयता प्रदान कर सामन्तीय शासन पद्धति को अपनाया था। हर्ष ने अपने ताम्रपत्र सैनिक शिवरां से ही निर्गत किये गये थे।
तालेश्वर ताम्रपत्रों में द्वितीय वरीयता क्रमांक पर ’प्रमातार’ नामक राज्याधिकारी का उल्लेख किया गया है। प्रमातार का संबंध भूमि पैमाइश अधिकारी से था। पौरव शासक द्युतिवर्म्मा के ताम्रपत्रांत में दूतकः सान्धिविग्रहिकः प्रमातार ’सूर्यदत्त’ उत्कीर्ण है। अर्थात द्युतिवर्म्मा के शासन काल में तीन राज्यपदों- दूत, सान्धिविग्रहिक और प्रमातार पद पर ’सूर्यदत्त’ नियुक्त थे। जबकि उनके उत्तराधिकारी विष्णुवर्म्मा के शासन काल में ’वराहदत्त’, दूत और प्रमातार के पद पर नियुक्त थे। गुप्त काल में हरीषेण कुमारामात्य, सान्धिविग्रहिक और महादण्डनायक नामक तीन पदो पर नियुक्त थे। अतः एक से अधिक पदों पर एक व्यक्ति की नियुक्ति करने की प्रथा ‘गुप्त कालीन भारत’ और ‘पौरव कालीन उत्तराखण्ड’ में प्रचलित थी।
कार्तिकेयपुर या पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों में प्रमातार नामक अधिकारी का महत्व कम हो गया था और उसका स्थान ’सामन्त’ नामक पदाधिकारी ने ले लिया था। जबकि ब्रह्मपुर के पर्वताकार राज्य में सामन्त और महासामन्त जैसे राज्य पद नहीं थे। या पौरव शासक सामन्त और महासामन्त नामक पदाधिकारियों से अनभिज्ञ थे।
प्रो. आर. एस. शर्मा, जिन्होंने सामन्तवाद के उदय तथा विकास का गहन अध्ययन किया है, की मान्यता है कि भारत में सामन्तवाद का उदय राजाओं द्वारा ब्राह्मणों तथा प्रशासनिक और सैनिक अधिकारियों को भूमि तथा ग्राम दान में दिये जाने के कारण हुआ। पहले ये अनुदान केवल ब्राह्मणों को ही धार्मिक कार्यों हेतु दिये गये किन्तु हर्ष काल तथा उसके पश्चात प्रशासनिक तथा सैनिक अधिकारियों को उनके सेवार्थ हेतु दिया जाने लगा।
प्रो. आर. एस. शर्मा के कथनानुसार भारत में सामन्तवाद का आरम्भ राजा हर्ष के समय से हुआ। राजपूत काल में सामन्तवाद का अत्यधिक विकास हुआ। उदाहरणतः- ‘‘चाहमान शासक पृथ्वीराज तृतीय के अधीन 150, कलचुरि कर्ण के अधीन 136 तथा चौलुक्य कुमारपाल के अधीन 72 सामन्तों के अस्तित्व का पता चलता है।’’ ’सामंत’ नामक राज्य पदाधिकारी के ‘पदावस्थापन’ के आधार पर कह सकते हैं कि पौरव वंश ने ’ब्रह्मपुर’ में हर्ष काल से पूर्व शासन किया था। या पौरव, राजा हर्ष के पूर्ववर्ती शासक थे, जिनके शासन काल में ’सामंत’ राज्यपद पदावस्थापित नहीं हो पाया था।
डॉ. शिवप्रसाद डबराल ने पौरव वंश के शासन काल को राजा हर्ष के पतनोपरांत निर्धारित किया है, जो उचित प्रतीत नहीं होता है। डॉ. यशवंत सिंह कठोच लिखते हैं- ’’इन शासकों का शासनकाल 580 से 680 ई. के मध्य होने का अनुमान होता है।’’ जबकि वाई. आर. गुप्ते, लिपि के आधार पर तालेश्वर ताम्रपत्रों को छठी शताब्दी ई. का निर्धारित करते हैं। अतः पौरव ताम्रपत्रों में ‘सामान्त’ नामक पदाधिकारी की अनुपस्थित से वाई. आर. गुप्ते के मत की पुष्टि होती है। ताम्रपत्रों की लिपि और सामन्त पदानुपस्थिति के आधार पर कह सकते हैं कि पौरव वंश ने राजा हर्ष के उत्थान से पूर्व उत्तराखण्ड के ब्रह्मपुर राज्य पर शासन किया था। संभवतः उत्तराखण्ड यह राजवंश उत्तर गुप्तों का समकालीन था और कन्नौज का मौखुरी वंश या राजा हर्ष इसके पतन का कारक रहे थे।
पौरव ताम्रपत्रों में तृतीय वरीयता क्रमांक पर ’प्रतिहार’ नामक पदाधिकारी का नाम उत्कीर्ण है। ‘‘प्रतिहार अन्तःपुर का रक्षक एवं महाप्रतिहार राजमहल के रक्षकों का प्रधान होता था।’’ प्रतिहार और महाप्रतिहार गुप्तकाल में केन्द्रीय अधिकारी थे। पौरव ताम्रपत्रों में ’महाप्रतिहार’ राज्य पद उत्कीर्ण नहीं है। जबकि पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रां में ’महाप्रतिहार’’ राज्य पद उत्कीर्ण है और ’प्रतिहार’ राज्य पद उत्कीर्ण नहीं है। अतः स्पष्ट है कि ब्रह्मपुर के पर्वताकार राज्य में रानी के लिए पृथक महल की व्यवस्था थी, जिसकी सुरक्षा ’प्रतिहार’ नाम पदाधिकारी के हाथों में थी। जबकि कार्तिकेयपुर राज्य में रानी राजमहल में ही निवास करतीं थीं, जिसकी सुरक्षा महाप्रतिहार के हाथों में थी। पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों में महाप्रतिहार छठे वरीयता क्रमांक पर ‘प्रमातार’ (भूमि पैमाइस अधिकारी) से भी उच्च श्रेणी का अधिकारी था।
पर्वताकार राज्य में भूमि पैमाइस मंत्री (प्रमातार), राजमहल सुरक्षा अधिकारी से अधिक महत्वपूर्ण था। भूमि पैमाइस विभाग जनहित और राज्य की समृद्धि से संबंधित विभाग था। जबकि ‘प्रतिहार’ राजा-राजपरिवार की सुरक्षा का विभागाध्यक्ष था। इस प्रकार प्रमातार और प्रतिहार पद की वरीयता क्रमांक के आधार पर कह सकते हैं कि पौरव शासकों ने व्यक्तिगत हित (राज हित) के सापेक्ष जनहित को अधिक महत्व दिया।
तालेश्वर ताम्रपत्रों में चतुर्थ वरीयता के स्थान पर ’कुमारामात्य’ नामक राज्याधिकारी उत्कीर्ण है। ‘‘अल्तेकर महोदय का मत है कि कुमारामात्य उच्च-पदाधिकारियों का विशिष्ट वर्ग था जो आधुनिक आई. ए. एस. वर्ग के पदाधिकारियों की भाँति था।’’ शाब्दिक आधार पर कुमारामात्य का अर्थ- कुमार ∔ अमात्य। ‘‘कात्यायन स्मृति में इस बात पर जोर दिया गया है कि आमात्यों की नियुक्ति ब्राह्मण वर्ग से होनी चाहिए।’’ इस आधार पर कह सकते हैं कि राजकुमार का सलाहाकार ब्राह्मण ’कुमारामात्य’ कहलाता था।
चमोली के पाण्डुकेश्वर से प्राप्त ताम्रपत्रों में प्र्रथम वरीयता क्रमांक पर राज्याधिकारी ’राजामात्य’ उत्कीर्ण है। जबकि इन ताम्रपत्रों में ’कुमारामात्य’ का वरीयता क्रमांक ग्यारहवां है। पर्वताकार राज्य में ’राजामात्य’ का पद नहीं था। पौरव नरेशों ने राजामात्य के स्थान पर कुमारामात्य को अधिक महत्व दिया। स्पष्ट है कि पौरव नरेश व्यक्ति विशेष की सलाह के स्थान पर मंत्रीमण्डल सामूहिक सलाह पर कार्य करते थे। ब्रह्मपुर में कुमारामात्य को उच्च वरीयता देने का अर्थ है कि राजकुमार को राजनीति में निपुण बनाना था।
पौरव ताम्रपत्रों में पांचवें वरीयता क्रमांक पर ’पीलुपत्यश्वपति’ उत्कीर्ण है। गुप्त काल में सेना का सर्वोच्च अधिकारी महाबलाधिकृत कहलाता था। हस्ति सेना के प्रधान को महापीलुपति तथा घुड़सवार सेना के प्रधान को भटाश्वपति कहते थे। पौरव राज्य में भी हस्ति-सेना प्रधान को पीलुपति और अश्व सेना प्रधान को अश्वपति कहा जाता था। जबकि पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों में ‘‘हस्तियश्वोष्ट्र बलाधिकृत’’ उत्कीर्ण है। अर्थात हस्ति, अश्व और ऊँट सेनाध्यक्ष। इस आधार पर कह सकते हैं कि ब्रह्मपुर और कार्तिकेयपुर ऐसे नगर राज्य थे, जहाँ से हस्ति और अश्व सेना का संचालन हो सकता था। संभवतः ब्रह्मपुर और कार्तिकेयपुर जैसे पर्वतीय राज्य में दक्षिणी सीमांत में स्थित मैदानी भू-भाग भी सम्मिलित था।
उपरिक, प्रमातार, प्रतिहार, कुमारामात्य और पीलुपत्यश्वपति जैसे महत्वपूर्ण राज्य पदों के अतिरिक्त विषयपति, दूतक, संधिविग्रहिक, सर्वविषय प्रधान, दिविरपति आदि राज्य पदाधिकारी एक विकसित और समृद्धिशाली राज्य को रेखांकित करते हैं। ब्रह्मपुर के शासक द्युतिवर्म्म के ताम्रपत्रांत में ’लिखितं दिविरपति’ और राज्य पदाधिकारियों की सूची से ‘दिविर’ नामक पदाधिकारी का उल्लेख किया गया है। ‘दिविर’ को लेखक भी कहा जाता था। इसका पद भी अमात्य जैसा ही था। लेकिन हर्ष के ताम्रपत्रों में दिविरपति के स्थान पर ’‘महाक्षपटलाधिकरणधिकृतसामन्त’’ उत्कीर्ण है। कार्तिकेयपुर नरेशों के ताम्रपत्रों में भी दिविर के स्थान पर ’‘लिखिमिदं महासन्धिविग्रहाक्षपटलाधिकृत’’ उत्कीर्ण है। अतः राजा हर्ष और कार्तिकेयपुर नरेशों ने ’अक्षपटल (अभिलेख विभाग)’ की स्थापना की थी। लेकिन तालेश्वर ताम्रपत्रां से ’अक्षपटल विभाग’ का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है।