(प्रमुख पाल शासक)
क्र.सं. पाल शासक शासन काल अभिलेख
1- गोपाल 750 – 770 ई. ————
2- धर्मपाल 770 – 810 ई. खालीमपुर लेख।
3 – देवपाल 810 – 850 ई. मुंगेर लेख।
4- विग्रहपाल 850 – 854 ई. ————
5- नारायणपाल 854 – 908 ई. भागलपुर ताम्रपत्राभिलेख एवं बादल लेख।
6- राज्यपाल, गोपाल द्वितीय, विग्रहपाल 908 – 988 ई. (तीन शासकों का कार्यकाल) ————
7- महीपाल 988-1038 ई. बानगढ़, नालन्दा, मुजफ्फर लेख।
हर्षवर्धन की मृत्यु के साथ ही उत्तराधिकारी न होने से पुष्यभूति वंश का कन्नौज से शासन सदैव के लिए समाप्त हो गया। उत्तर भारत में एक केन्द्रीय शक्ति के ह्रास के साथ आठवीं शताब्दी भारत में कई राजवंशों का अभ्युदय हुआ, जिनमें बंगाल का पाल वंश भी एक था। इस वंश के प्रथम शासक गोपाल ने लगभग 750 ई. से 770 ई. तक शासन किया। उसके पश्चात उसका पुत्र और उत्तराधिकारी धर्मपाल (770-810 ई.) राजा हुआ। खालीमपुर लेख में उसे (धर्मपाल) सभी सम्प्रदायों विशेष रूप से ब्राह्मणों का आदर करने वाला कहा गया है। यह पाल शासक आदि गुरु शंकराचार्य का समकालीन था। अतः उसका एक बौद्ध शासक के रूप में ’ब्राह्मणपरायण’ होना शंकराचार्य के प्रभाव को परिलक्षित करता है।
शंकराचार्य ने उत्तराखण्ड के केदारनाथ में समाधि लेने से सम्पूर्ण भारत का भ्रमण कर सनातन संस्कृति को पुनर्जीवित किया। चार धाम और बारह ज्योर्तिरलिंगों की स्थापना के साथ उन्होंने तीर्थ यात्रा को मोक्ष का प्रतीक बना, भारतीय जनमानस को एक धर्म, एक राष्ट्र के रूप में रूपान्तरित कर दिया। पाल वंश के शासक धर्मपाल और शंकराचार्य के संबंधों को स्पष्ट करते हुए बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ’’वह केदारनाथ गये थे।’’ लेकिन डॉ. शिवप्रसाद डबराल मुंगेर-देवपाल अभिलेख के ताम्रपत्रानुवाद में लिखते हैं- ’’दिग्विजय में प्रवृत्त उस नरेश धर्मपाल (827-867 वि.) के भृत्यवर्ग ने केदारतीर्थ में यथाविधि स्नान-तर्पणादि सम्पन्न किये।’’ धर्मपाल ने केदारनाथ यात्रा की या नहीं की, लेकिन उसके स्थान पर उसके भृत्यवर्ग (नौकर-सेवकों) ने उसके लिए केदार यात्रा की थी। भृत्यों की सफल केदार यात्रा के आधार पर कह सकते हैं कि मध्य हिमालय के कार्तिकेयपुर राज्य से उनका मैत्रीपूर्ण संबंध था। संभवतः इस सफल यात्रा की पृष्ठ-भूमि में प्रछन्न बौद्ध (शंकराचार्य), धर्मपाल और कार्तिकेयपुर राज्य का त्रिकोणीय सहसंबंध था।
कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के ताम्रपत्र और देवपाल (मुंगेर) के ताम्रपत्र में एकरूपता को कुछ इतिहासकार मान्यता देते हैं। यह विचित्र तथ्य है कि कन्नौज सम्राट हर्ष के ताम्रपत्रों के स्थान पर देवपाल का मुंगेर ताम्रपत्र लेखन शैली, लिपि, संस्कृत भाषा, राज्य पद और ताम्रपत्र-टंकणकर्ता इत्यादि में ललितशूरदेव के ताम्रपत्रों से समानता रखता है। निश्चित ही इस संयोग का बीज धर्मपाल द्वारा आयोजित ’केदार धर्म यात्रा’ में बोया गया था। अतः कत्यूरी-पाल संबंधों को स्पष्ट करने हेतु ब्रह्मपुर, बांसखेड़ा, मुंगेर और कार्तिकेयपुर से निर्गत ताम्रपत्रों की संक्षिप्त विवेचना आवश्यक है-
पौरव ताम्रपत्रों में एक विशेष राज्य पदाधिकारी ’प्रतिहार’ का नाम उत्कीर्ण है। प्रतिहार नामक पदाधिकारी अन्तःपुर का रक्षक एवं महाप्रतिहार राजमहल के रक्षकों का प्रधान होता था। मुंगेर और कार्तिकेयपुर ताम्रपत्रां में ’महाप्रतिहार’’ राज्य पद उत्कीर्ण है। जबकि राजा हर्ष के ताम्रपत्रों से ’महाप्रतिहार’ राज्यपद का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। ’प्रतिहार’ राज्यपद की पदावस्थापन गुप्त काल में हो चुकी थी। ’प्रतिहार’/’महाप्रतिहार’ नामक यह राज्यपद सातवीं सदी के प्रशासनिक सूची (हर्ष के ताम्रपत्रों) में उल्लेखित नहीं है। लेकिन नौवीं शताब्दी में यह राज्यपद कत्यूरी और पाल शासकों की प्रशासनिक सूची में कैसे पुनः पदावस्थापन हो गया? संभवतः इसका कारण ताम्रपत्र निर्गत करने का स्थान से हो सकता है। हर्ष के बांसखेड़ा (शाहजहांपुर, उ0प्र0) और मधुबन (घोषी तहसील, मऊ, उ0प्र0) तामपत्र सैनिक शिविर से निर्गत किये गये थे। राजमहल का रक्षक पदाधिकारी ‘महाप्रतिहार’ सैनिक शिविर में उपस्थित नहीं रहा होगा। इसलिए इस पदाधिकारी का उल्लेख हर्ष के इन दो ताम्रपत्रों से प्राप्त नहीं होता है।
गुप्त काल में प्रान्त को देश, अवनी अथवा भुक्ति कहा जाता था। भुक्ति के शासक को ’उपरिक’ कहा जाता था। पौरव (ब्रह्मपुर) ताम्रपत्रों में सर्वोच्च अधिकारी दण्ड-उपरिक था। जबकि हर्ष और ललितशूरदेव के ताम्रपत्रों में ’उपरिक’ का वरीयता क्रम कुमारामात्य के पश्चात था। देवपाल के मुंगेर ताम्रपत्र में ’उपरिक’ राज्यपदाधिकारी का नाम उत्कीर्ण नहीं है। हर्ष और ललितशूर के शासन में ’उपरिक’ का महत्व कम होने का स्पष्ट कारण है कि इनके शासन काल में केन्द्रीय सत्ता शक्तिशाली हो चुकी थी। राजा हर्ष के ताम्रपत्र में ’उपरिक’ सातवें तथा कार्तिकेयपुर नरेशों ललितशूरदेव, पद्मटदेव और सुभिक्षराजदेव के ताम्रपत्र में सत्रहवें वरीयता क्रम का राज्याधिकारी था। जबकि बंगाल के पाल अभिलेखों में ‘उपरिक’ नामक पदाधिकारी का उल्लेख न होना यह संकेत करता है कि पाल राज्य भुक्तियों/प्रदेशों में विभाजित नहीं था। राज्य पदों के आधार पर कर्तिकेयपुर नरेश, राजा हर्ष के समकालीन प्रतीत होते हैं। जबकि पाल वंश, हर्ष से एक शताब्दी के पश्चात अस्तित्व में आया था।
हर्ष और कार्तिकेयपुर राज्य में सामन्त, महाराजा, राजस्थानीय, भोगपति/भोगिक आदि राज्यपद अस्तित्व में थे। जबकि पाल वंश के मुंगेर ताम्रपत्र में ये राज्य पद उत्कीर्ण नहीं किये गये। इस आधार पर कह सकते हैं कि कार्तिकेयपुर के ताम्रपत्र, हर्ष और पौरव ताम्रपत्रों का मिश्रण थे। कार्तिकेयपुर ताम्रपत्रों में उत्कीर्ण ठाकुर, घट्टपाल, वर्त्मपाल, पट्टक, पट्टोपचारिक, व्यापितृक, भट्ट महोत्तम, महामनुष्य, सौधभंगादिकृत आदि राज्यपदों का विवरण बांसखेड़ा और मुंगेर ताम्रपत्रों से प्राप्त नहीं होता है। संभवतः ये राज्य पद मध्य हिमालय में ही प्रचलित थे और इनमें से ’ठाकुर’, भट्ट और ’घट्ट’ शब्द आज भी प्रचलन में हैं। अतः मध्य हिमालय के शासक पूर्णरूप से ताम्रपत्र लेखन कार्य में सक्षम थे, जो उन्हें विरासत में पौरव शासकां से प्राप्त हुआ था।
ब्रह्मपुर, बांसखेड़ा, कार्तिकेयपुर और मुंगेर ताम्रपत्रों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि पौरव राज्य में उच्च वरीयता वाले ’उपरिक’ और ’प्रतिहार’ राज्य पदाधिकारी महत्वपूर्ण थे। इन पदाधिकारियों का पौरव काल में महत्वपूर्ण होना, पूर्ववर्ती गुप्तों का प्रभाव दिखलाई देता है। हर्ष के ताम्रपत्र में सामंत और महासामंत का महत्वपूर्ण होना ’सैन्य शासन’ तथा ललिताशूर के ताम्रपत्र में ’अमात्य’ का महत्वपूर्ण होना ’चक्रवर्ती शासन’ के प्रभाव को परिलक्षित करता है। अतः उपरोक्त विवेचना के आधार पर तालेश्वर, बांसखेड़ा, मुंगेर और पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों का कालानुक्रम- तालेश्वर, बांसखेड़ा, पाण्डुकेश्वर और मुंगेर होना चाहिए। अर्थात कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव, पाल शासक देवपाल का पूर्ववर्ती था।
पाल शासक धर्मपाल की मृत्यूपरांत उसका सुयोग्य पुत्र देवपाल (810-850 ईस्वी) राजसिंहासन पर आसित हुआ। धर्मपाल की भाँति देवपाल भी बौद्ध धर्म का संरक्षक था। इसलिए बौद्ध लेखक तारानाथ उसे बौद्ध धर्म की पुनः स्थापना करने वाला कहता है। ‘‘बौद्ध धर्म में अटूट आस्था के कारण मुंगेर के राजा देवपाल सौगत यानी बुद्ध-धर्मी कहे गये हैं।’’ जबकि नौवीं सदी के प्रारंभ में ही आचार्य शंकर (लगभग 788-820 ई.) ने वेदांत-दर्शन की पुनः प्रतिष्ठा हेतु सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया और समकालीन विद्वानों पर सनातन/आध्यात्मिक दिग्विजय प्राप्त की थी। शंकर की प्रचंड प्रतिभा के समक्ष बौद्ध दर्शन के पैर उखड़ गये थे। मध्य हिमालय के बागेश्वर शिलालेख में वर्णित शासक ’ब्राह्मण’ धर्मानुयायी थे। इस शिलालेख में कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के पुत्र भूदेवदेव ने स्वयं हेतु ‘परमब्राह्मणपरायण परमबुद्धश्रमणरिपु’ उपाधि उत्कीर्ण करवायी थी। संभवतः ब्राह्मण धर्म परायण भूदेवेदव आदि गुरु शंकराचार्य से प्रभावित था और बुद्ध भिक्षुआें का शत्रु या बंगाल शासक देवपाल का विरोधी था।
देवपाल के मुंगेर लेख से स्पष्ट होता है कि उसने विन्ध्यपर्वत तथा कम्बोज तक सैनिक अभियान किया था। संभवतः बंगाल और कम्बोज के मध्य में स्थित उत्तराखण्ड पर देवपाल ने आक्रमण किया, जिसकी पुष्टि बादल लेख से भी होती है।
बादल लेखानुसार- ‘‘उसका योग्य अमात्य दर्भपाणि था, जो धर्मपाल के अमात्य वीरदेव का पुत्र था। उसकी कूटनीति ने रेवा (नर्मदा) के पिता विन्ध्याचल तथा गौरी के पिता हिमांचल के बीच बसे हुए पश्चिमी समुद्र (अरब सागर) से पूर्वी समुद्र (बंगाल की खाड़ी) तक के सम्पूर्ण क्षेत्र को देवपाल का करद बना दिया। उसने उत्कलों को उखाड़ फेंका, हूणों (बादल लेख के हूणों से तात्पर्य संभवतः मालवा के हूणों से है।) के गर्व को चूर्ण किया तथा द्रविड़ और गुर्जर राजाओं के अभिमान को विदीर्ण कर समुद्रों से घिरी हुई समस्त पृथ्वी पर शासन किया था।’’
देवपाल का सैन्य अभियान मध्य भारत में अधिक सफल रहा। लेख में कहीं भी मध्य हिमालय (उत्तराखण्ड) पर विजय का उल्लेख नहीं किया गया है। सम्भवतः बौद्ध श्रमणों की सहायता से देवपाल ने कार्तिकेयपुर नरेश भूदेवदेव के राज्य पर असफल आक्रमण किया। संभवतः इसी कारण भूदेवदेव ने ’परमबुद्धश्रमणरिपु’ की उपाधि धारण की थी। भूदेवदेव कार्तिकेयपुर के प्रथम शासक थे, जिसने ’परमबुद्धश्रमणरिपु’ उपाधि धारण की थी।
भूदेवदेव को देवपाल से संबद्ध करने का प्रमुख कारण ’परमबुद्धश्रमणरिपु’ की उपाधि करना है। ’परमब्राह्मणपरायण’ एक शासक क्यों बौद्ध भिक्षुओं का शत्रु बन बैठा ? निश्चित ही इस प्रश्न का उत्तर बौद्ध श्रमणों का मध्य हिमालय क्षेत्र पर आक्रमण करना था। आठवीं-नौवीं शताब्दी में मध्य हिमालय पर आक्रमण करने की योग्यता सिर्फ देवपाल में थी। ‘‘देवपाल का शासन-काल पाल-शक्ति के चर्मात्कर्ष को व्यक्त करता है। इसके पश्चात पाल साम्राज्य की अवनति प्रारम्भ हुई। देवपाल का उत्तराधिकारी विग्रहपाल का शासनकाल मात्र चार वर्ष का था तथा उसका उत्तराधिकारी ‘‘नारायण पाल की भी सैनिक जीवन की अपेक्षा साधु जीवन व्यतीत करने में अधिक रुचि थी।’’ अतः देवपाल के पश्चात 150 वर्षों तक पाल वंश का कोई भी राजा इतना योग्य नहीं था कि वह बंगाल-बिहार के सीमावर्ती क्षेत्रों में सैन्य अभियान चला सकता था। धर्मपाल और उसके उत्तराधिकारियों में से देवपाल ही सबसे उपयुक्त शासक था, जो मध्य हिमालय पर आक्रमण करने की योग्यता रखता था।
तारानाथ, देवपाल को बौद्ध धर्म की पुनः स्थापना करने वाला कहता है। एक तरफ बौद्ध लेखकों द्वारा देवपाल को ’परमसौगत’ की उपाधि प्रदान की गई, दूसरी तरफ मध्य हिमालय के कार्तिकेयपुर नरेश ’परमब्राह्मण्य की उपाधि धारण करते हैं। ‘परमब्राह्मण्य’ उपाधि धारण करने वाले प्रथम कार्तिकेयपुर नरेश ’इष्टगणदेव’ थे। इस राजा के पश्चात इनके पुत्र ललितशूरदेव और पौत्र भूदेवदेव ने भी यह उपाधि धारण की थी। संभवतः शंकराचार्य के समाधिस्थ हो जाने के पश्चात सन् 820 ई. में ’बौद्ध’, ’ब्राह्मण’ और ’शंकराचार्य’ का त्रिकोणीय शक्ति-सन्तुलन टूट गया और पाल नरेश देवपाल (810-850 ई.) ने शंकराचार्य (ब्राह्मण धर्म) के प्रभाव से मुक्त हो, श्रमणों की मदद से मध्य हिमालय के कार्तिकेयपुर राज्य पर आक्रमण किया। यही कारण था कि कार्तिकेयपुर नरेश भूदेवदेव’ ने परमब्राह्मण्य के अतिरिक्त परमबुद्धश्रमणरिपु’ की उपाधि धारण की थी।
उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर कार्तिकेयपुर नरेशों का शासन काल इस प्रकार निर्धारित कर सकते हैं-
क्र.सं. कार्तिकेयपुर शासक पाल शासक
1- निम्बर 740 से 760 ई. (अनुमानित) …………………….
2- इष्टगणदेव 760 से 780 ई. (अनुमानित) गोपाल (750 से 770 ई.)
3- ललितशूरदेव 780 से 817 ई. (अनुमानित) धर्मपाल (770 से 810 ई.)
4- भूदेवदेव 817 से 832 ई. (अनुमानित) देवपाल (810 से 850 ई.)