मध्य कालीन भारतीय इतिहास में कन्नौज का त्रिकोणीय संघर्ष अपना विशेष महत्व रखता है। इसी प्रकार मध्य हिमालय के पर्वतीय राज्य कुमाऊँ का त्रिकोणीय संघर्ष भी उत्तराखण्ड के स्थानीय इतिहास में अपना महत्व रखता है। कन्नौज के त्रिकोणीय संघर्ष में गुर्जर-प्रतिहार, पाल और राष्ट्रकूट सम्मिलित थे, वहीं कुमाऊँ का त्रिकोणीय संघर्ष डोटी के मल्ल, चम्पावत के चंद और पश्चिमी कत्यूरी राजाओं के मध्य हुआ था। कन्नौज का त्रिकोणीय संघर्ष जहाँ आठवीं से दशवीं शताब्दी के मध्य हुआ था, वहीं कुमाऊँ का त्रिकोणीय संघर्ष चौदहवीं से सोहलवीं शताब्दी के मध्य हुआ था। कन्नौज के संघर्ष में गुर्जर-प्रतिहार, तो कुमाऊँ के संघर्ष में चंद वंश सफल हुआ था।
कुमाऊँ के त्रिकोणीय संघर्ष की पृष्ठभूमि-
कुमाऊँ के त्रिकोणीय संघर्ष के मूल में तेरहवीं शताब्दी में कत्यूरी राज्य का विभाजन था। इस विभाजन के फलस्वरूप कुमाऊँ क्षेत्र द्वराहाट, कत्यूर, गंगोली, अस्कोट और चंपावत आदि स्थानीय राज्य इकाइयों में विभाजित हो गया। कत्यूरियों की एक शाखा नेपाल के डोटी राज्य में स्थापित हो गई और डोटी के रैका-मल्ल कहलाये। कत्यूरियों की दूसरी शाखा काली नदी के पश्चिमी तटवर्ती अस्कोट में स्थापित हो गई और अस्कोट के पाल कहलाये। कुमाऊँ का त्रिकोणीय संघर्ष आरंभ होने से पूर्व कत्यूरियों की डोटी शाखा ने अस्कोट के पालवंश को अपने आधिपत्य में ले लिया था। इस तथ्य की पुष्टि अस्कोट पाल वंशावली से होती है, जिसमें भूपाल के पश्चात रत्नपाल तक 26 राजाओं के नाम उनकी वंशावली से विलोपित हैं।
चौदहवीं शताब्दी में कुमाऊँ के उत्तर-मध्य पूर्वी भाग पर डोटी मल्ल शक्तिशाली हो गये और वहीं दक्षिण पूर्वी भाग पर चंपावत के चंद भी वर्षों की सामन्तीय बंधनों को तोड़ स्वतंत्र हो गये थे। इस कालखण्ड में चंद राज्य और कुमाऊँ के डोटी राज्य के मध्य एक नवीन राज्य ‘सोर’ (पिथौरागढ़) का उत्थान हुआ, जहाँ के शासक सोर के ‘बम’ कहलाये। विद्वानों के अनुसार सोर के बम, डोटी के मल्ल वंश की एक शाखा थी। सोर के पश्चिमी भाग में गंगोली राज्य था, जहाँ चौदहवीं शताब्दी में नेपाल मूल के चंदवंश का शासन आरंभ हो चुका था। गंगोली के मणकोट नामक दुर्ग से संचालित इस राज्य के शासकों को मणकोटी कहा गया। आज भी गंगोली के चंद राजवंशी क्षत्रिय पिथौरागढ़ के भल्यौं नामक गांव में निवास करते हैं, जिनके वैवाहिक संबंध अस्कोट के पाल और रजवारों से हैं।
कुमाऊँ के पूर्वी भाग पर डोटी मल्ल वंश की पश्चिमी राजधानी सीराकोट (डीडीहाट के निकट, जहाँ अब मलयनाथ देवता का मंदिर है।) में थी। वहीं कुमाऊँ के पश्चिमी भाग पर कत्यूरियों का शासन था। डोटी-मल्ल वंश ने अपने ही मूलवंशी पश्चिमी कत्यूरियों के विरुद्ध सैन्य अभियान चलाया हो या पश्चिमी कत्यूरियों ने मल्लों के विरुद्ध सैन्य अभियान चलाया हो, इस संबंध में ऐतिहासिक प्रमाण प्राप्त नहीं होते हैं। लेकिन चंद राजाओं का मल्ल और पश्चिमी कत्यूरियों के मध्य हुए अनेक युद्धों का ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं।
सोर राज्य के ‘बम’ शासक चंद राजा गरुड़ ज्ञानचंद (1389-1422) के करद शासक थे। इस तथ्य की पुष्टि सेलौनी ताम्रपत्र शाके 1344 भी करता है, जिसमें ज्ञानचंद के साथ सोर शासक विजयब्रह्म भूमि-दान का संकल्प करते हैं। वहीं गंगोली के मणकोटी शासक डोटी राज्य के करद रहे थे। चौदहवीं शताब्दी में कुमाऊँ के पूर्वी भाग में दो राज्य शक्तियां डोटी मल्ल और चंपावत के चंद स्थापित हो चुके थे। जबकि शेष कुमाऊँ पर कत्यूरी वंशज राज्य कर रहे थे। ऐतिहासिक तथ्यों से स्पष्ट होता है कि डोटी का मल्ल वंश भी कत्यूरियों की एक शाखा से संबंधित राजवंश था, जिनकी कुमाऊँ में राजधानी सीराकोट (डीडीहाट) में थी। तेरहवीं शताब्दी में कत्यूरी राज्य के विभाजनोपरांत कुमाऊँ राज्य पर अधिकार में लेने हेतु चंपावत के चंद, डोटी मल्ल और पश्चिमी कुमाऊँ के कत्यूरियों के मध्य त्रिकोणीय संघर्ष सोहलवीं शताब्दी तक चला था। कुमाऊँ इस त्रिकोणीय संघर्ष में गंगोली बफर राज्य की भूमिका में था, जहाँ नेपाल के चंद वंशवीय मणकोटी शासकों ने लगभग 200 वर्ष राज्य किया।
कुमाऊँ के त्रिकोणीय संघर्ष का प्रथम चरण-
कुमाऊँ के त्रिकोणीय संघर्ष में डोटी मल्ल शासक आरंभिक बढ़त लेने में सफल हुए। प्राचीन भोट-व्यापार मार्ग थल-बागेश्वर पर डोटी मल्ल शासकों का अधिकार था। मल्ल शासकों ने अपने राज्य को स्थायित्व प्रदान करने हेतु अपने सहयोगी क्षत्रियों के मध्य ‘जयदेव’ प्रथा का प्रचलन किया। जयदेव प्रथा के अंतर्गत सरयू-काली नदी अंतस्थ क्षेत्र के क्षत्रियों जैसे देउपा, चुफाल, बसेड़ा, रौतेला, रावत, राणा, कोश्यारी, शाही और बथ्याल आदि में पैलागन/प्रणाम के स्थान पर जयदेव (जैद्यो) कहने की परम्परा है। इनमें से अधिकांश क्षत्रियों के गांव प्राचीन भोट व्यापारिक मार्ग पर थे। इन्हीं क्षत्रियों की सहायता से डोटी के मल्ल शासक सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक कुमाऊँ में अपनी राजसत्ता को बनाये रखने में सफल रहे थे।
कुमाऊँ के त्रिकोणीय संघर्ष में पश्चिमी कत्यूरी धीरे-धीरे शक्तिहीन होते गये और उनका स्थान चंपावत के चंदों ने ले लिया। पन्द्रहवीं शताब्दी में चंदों ने सोर के साथ-साथ पश्चिमी कत्यूरियों के कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। चंदों के पश्चिमी अभियान का श्रेय राजा कीर्तिचंद को जाता है, जिसने कत्यूरियों के बारामण्डल (अल्मोड़ा के आस पास का क्षेत्र), फल्दाकोट (रानीखेत का आस पास का क्षेत्र), पाली (पश्चिमी रामगंगा घाटी) और धनियाकोट (बेतालघाट की कोसी घाटी) जीत लिया। लेकिन कीर्तिचंद के मृत्युपरांत उनके उत्तराधिकारी आपसी सत्ता संघर्ष में उलझ गये। इस दौरा भीष्मचंद सहित पांच राजा चंद सिंहासन पर आसित हुए। चंद राज्य में अस्थिरता के इस कालखण्ड में पश्चिमी कत्यूरी पुनः स्वतंत्र हो गये। अतः भीष्मचंद को अल्मोड़ा सैन्य अभियान पर जाना पड़ा।
भीष्मचंद ने पश्चिमी कत्यूरियों को पराजित कर अल्मोड़ा पर लगभग सन् 1545 ई. में अधिकार कर लिया था। लेकिन शीघ्र ही इस चंद राजा की हत्या अल्मोड़ा में रात्रि विश्राम के दौरान रामगढ़ (नैनीताल जनपद का एक विकासखण्ड) के खस राजा गजुवाठिंगा ने कर दी। भेटा, पिथौरागढ़ से प्राप्त शाके 1467 या सन् 1545 ई. का ताम्रपत्र इस तथ्य की पुष्टि करता है। इस ताम्रपत्र में कल्याणचंददेव की ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि के साथ भीष्मचंद का भी उल्लेख किया गया है। अर्थात भीष्मचंद की हत्या के उपरांत चंपावत के चंद राजसिंहासन पर बालो कल्याणचंद आसित हो चुके थे। कल्याणचंद राजा भीष्मचंद के दत्तक पुत्र थे।
चंद राजा भीष्मचंद की हत्या के पश्चात कुछ समय तक अल्मोड़ा पर खस राजा गजुवाठिंगा का अधिकार रहा, जो पश्चिमी कत्यूरियों का प्रतिनिधि शासक/सामन्त था। उधर चंदों की राजधानी चंपावत में भीष्मचंद के दत्तक पुत्र कल्याणचंद अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध लेने हेतु आतुर थे। लेकिन डोटी से हो रहे निरन्तर आक्रमणों ने उनके अल्मोड़ा अभियान को बाधित कर दिया था। शाके 1478 या सन् 1556 ई. के गौंछ, पिथौरागढ़ ताम्रपत्र से स्पष्ट होता डोटियालों और अल्मोड़ा के खश राजा से हुए संघर्ष में बालो कल्याणचंददेव की स्थिति दुर्बल हो गयी थी। इस ताम्रपत्र में कल्याणचंद की उपाधि महाराजाधिराज के स्थान पर ‘राजाधिराज’ उत्कीर्ण है। कुमाऊँ के त्रिकोणीय संघर्ष में अपनी स्थिति को सशक्त करने हेतु इस चंद राजा ने डोटियालों से वैवाहिक संधि कर ली थी। कुमाऊँ क्षेत्र के अंतिम डोटी शासक हरिमल्ल की बहन चंद राजा बालो कल्याणचंददेव की रानी थी।
कुमाऊँ के त्रिकोणीय संघर्ष का द्वितीय चरण-
डोटी के डोटियालों से संधि करने के पश्चात चंद राजा बालो कल्याणचंददेव खस राजा गजुवाठिंगा को पराजित कर अल्मोड़ा पर अधिकार करने में सफल हुआ। यह घटना सन् 1556 ई. और सन् 1560 ई. के मध्य घटित हुई। शाके 1482 या सन् 1560 ई. के जाखपंत, पिथौरागढ़ ताम्रपत्र में इस राजा ने पुनः ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण कर ली थी। अल्मोड़ा को विजित करने के उपरांत भी बालो कल्याणचंद के लिए मध्य हिमालय के उत्तर-कत्यूरी राज्यों गंगोली, सीरा, अस्कोट तथा दानपुर को चंद राज्य में सम्मिलित करना शेष था। अपने लक्ष्य की पूर्ति हेतु सर्वप्रथम उन्होंने मणकोटी राजा नारायणचंद को हराकर गंगोली को चंद राज्य में सम्मिलित कर लिया। कुमाऊँ में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने हेतु इस चंद राजा ने अल्मोड़ा को राज्य की नवीन राजधानी के रूप में चिह्नित किया। ’’अल्मोड़ा घास ले जाने वाले अल्मोड़ियों से अल्मोड़ा नाम पड़ा। अल्मोड़ा नगर संवत् 1620 शाके 1485 तथा सन् 1563 में बसाया गया।’’
बालो कल्याणचंद को गंगोली अभियान में सफलता प्राप्त हुई। इस चंद राजा ने शाके 1482 का जाखपंत ताम्रपत्र मनिपंत को निर्गत किया था। कुमाऊँ में पंत ब्राह्मणों की मूल बसावट गंगोली राज्य में थी। संभवतः गंगोली के मणकोटी राजा नारायणचंद को पराजित करने में स्थानीय पंत ब्राह्मणों ने चंदों की सहायता की थी। गंगोली विजय के पुरस्कार स्वरूप मनीपंत को कल्याणचंददेव ने पिथौरागढ़ का जाख कनारी गांव में भूमि दान में दिया था। अब यह गांव जाखपंत कहलाता है। यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि गंगोली के मणकोटी शासक डोटी राज्य के करद थे। संभवतः भीषण युद्ध हुए बिना गंगोली शासक नारायणचंद ने चंदो की अधिनता स्वीकार कर ली। इस विजय के उपरांत कल्याणचंद ने सीराकोट को विजित करने का असफल प्रयास किया था। उसने कूटनीति द्वारा सीराकोट को लेने का प्रयास किया।
कुमाऊँ के त्रिकोणीय संघर्ष का तृतीय चरण-
सन् 1563 ई. में अल्मोड़ा नगर चंद राज्य की नवीन राजधानी के रूप में स्थापित हो चुका था। बालो कल्याणचंददेव की सन् 1568 ई. मृत्यु हो गई। चंद सिंहासन पर बालो कल्याणचंद के पुत्र रुद्रचंद आसित हुए। इस राजा के सम्मुख अल्मोड़ा के पूर्व में डोटी और पश्चिम में कत्यूरी अभी भी सिर उठाये खड़े थे। इस चंद राजा ने कुमाऊँ के पूर्वी और पश्चिमी दोनों मोर्चों पर अपने सैन्य अभियान जारी रखे। लेकिन इस राजा का पूर्वी सैन्य अभियान सबसे कठिन अभियान था, जिसे ‘सीराकोट अभियान’ भी कहा जाता है। सोलहवीं शताब्दी में सीराकोट डोटी राज्य की पश्चिमी राजधानी थी। रुद्रचंददेव के समकालीन मल्ल राजा हरिमल्ल थे, जो उनके मामा थे। सीराकोट अभियान का नेतृत्व चंद राजा ने गंगोली के पंत ब्राह्मण पुरुषोत्तम पंत को सौंपा।
पुरुषोत्तम पंत गंगोली राज्य में अंतिम मणकोटी राजा नारायणचंद के दीवान थे, जिन्हें कमाउनी में पुर्खू पंत भी कहा जाता था। पुरुषोत्तम पंत की रणनीति और कूटनीति द्वारा चंद राजा रुद्रचंददेव सीराकोट को विजित करने में सफल हुए थे। सीराकोट को विजित करने हेतु इस चंद राजा ने अस्कोट के पाल वंश से वैवाहिक संबंध स्थापित करने के साथ-साथ पूर्वी रामगंगा और काली अंतस्थ क्षेत्र के क्षत्रपों को अपने पक्ष में करने में सफलता प्राप्त की थी। सन् 1581 ई. के ग्रीष्म ऋतु में चंद सेना ने सीराकोट पर अधिकार कर लिया। मल्ल शासक हरिमल्ल प्राण बचाकर डोटी को भाग गये थे। इस प्रकार कुमाऊँ के क्षेत्र विशेष से मल्ल वंश का शासन सदैव के लिए समाप्त हो गया और यह पर्वतीय राज्य पर चंदों के अधिकार में आ गया। इस अभियान में सोर के लखु महर शहीद हुए, जिनके परिवार को सन् 1579 ई. में रुद्रचंद ने भूमि दान किया था।
सीराकोट विजय के साथ चंद कुमाऊँ के एक छत्र शासक हो गये। रुद्रचंद सम्पूर्ण कुमाऊँ के प्रथम चंद राजा बनने में सफल हुए। इस विजय के पश्चात कुमाऊँ राज्य हेतु त्रिकोणीय संघर्ष सदैव के लिए समाप्त हो गया। सन् 1581 ई. के पश्चात चंद सेना पड़ोसी राज्यों पश्चिम में गढ़वाल और पूर्व में डोटी से निरन्तर युद्ध के मोर्चे पर रही थी। सीराकोट विजय के सेनापति गंगोली के पुरुषोत्तम पंत अपने पहले गढ़वाल अभियान पर शहीद हुए थे। अठारहवीं शताब्दी में दक्षिण से रोहिला सेना ने दो बार कुमाऊँ राज्य पर आक्रमण किया और अल्मोड़ा सहित कई स्थानों पर लूट-पाट की थी। सन् 1790 ई. में नेपाल की गोरखा सेना ने कुमाऊँ पर आक्रमण किया और अल्मोड़ा पर अधिकार कर चंद राज्य का अंत कर दिया था।
डॉ. नरसिंह
Great work,sir! Deep study in the history of Kumaon.Congrats and best wishes for future!
Thanks sir its your greatness