(सन्दर्भ- श्रीवास्तव कृष्ण चन्द्र, 2007, यूनाइटेड बुक डिपो, इलाहाबाद, प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, पृष्ठ- 499 से 500)
सिद्धम।। स्वस्ति(।।) महानौहस्त्यश्वजयस्कन्धावाराच्छ्रीवर्द्धमानकोट्यामहाराजश्रीनरवर्द्धनस्तस्यपुत्रस्तत्पादा नुध्यातश्श्रीवज्रिणीदेव्यामुत्पन्नः परमादित्यभक्तोमहाराजश्रीराज्यवर्द्धनस्तस्यपुत्रस्तत्पादानुध्यातश्श्रीमदप्सरोदेप्यामुत्पन्नः परमादित्यभक्तोमहाराजश्रीमदादित्यवर्द्धनस्तस्यपुत्रस्तत्पादानुध्यातश्श्रीमहासेनगुप्तादेव्यामुत्पन्नश्चतुस्समुद्रातिक्क्रान्तकीर्ति प्रतापानुरागोपनयान्यराजोवर्ण्णाश्रमव्यवस्थापनप्रवृत्तचक्र एकचक्ररथ इव प्रजानामर्तिहरः परमादित्यभक्तपरमभट्टारक महाराजाधिराजश्रीप्रभाकरवर्द्धनस्तस्यपुत्त्रस्तत्पादानुध्यार्तास्सतयशप्रतानविच्छुरितसकलभुवनमण्डलपरिगृहीतधनदवरुणेन्द्र प्रभृतिलोकपालतेजास्सत्पथोपार्ज्जितानेकद्रविणभूमिप्रदानसंप्रीणितार्थिहृदयो(ऽ)तिशयतिपूर्व्वराजचरितोदेव्याममलयशोमत्या (त्यां) श्रीयशोमत्यामुत्पन्नः परमसौगतस्सुगत इव परहितैकरतः परमभट्टारकमहाराजाधिराज श्रीराज्यवर्द्धनः।
राजानो युधि दुष्टवाजिन इव श्रीदेवगुप्तादय
कृत्वा येन कशाप्रहारविमुखाः स्सर्व्वेसमं संयताः।
उत्खाय द्विषतो विजित्य वसुधाड्.कृत्वा प्रजानां प्रियं
प्राणनुज्झितवानरातिभवने सत्यानुरोधेन यः ।।1।।
तस्यानुजस्तत्पादानुध्यातः परममाहेश्वरो महेश्वर इव सर्वससत्वानुकम्पी परमभट्टारकमहाराजाधिराजश्रीहर्षः अहिच्छत्राभुक्तावंगदीयवैषयिकपश्चिमपथकसम्बद्धमर्क्कटसागरेसमुपगतान्महासामन्तमहाराजदौस्साधसाधनिक प्रमातारराजस्थानीयकुमारामात्योपरिकविषयपतिभटचाटसेवकादीन्प्रतिवासि जानपदांश्च समाज्ञापयति।। विदितमस्तुयथायमुपरिलिखितग्रामः स्वसीमापर्यन्तः सोद्रंगसर्वराजकुलाभाव्यप्रत्यायसमेतः सर्वपरिहृतपरिहारो विषयादुद्धृतपिण्डः पुत्रपौत्रानुगश्चन्द्रार्कक्षितिसमकालीनोभूमिच्छिद्रन्यायेनमयापितुःपरमभट्टारकमहाराजाधिराजश्री प्रभाकरवर्द्धनदेवस्यमातुर्भट्टारिकामहादेवीराज्ञीश्रीयशोमतीदेव्यांज्येष्ठभ्रातृपरमभट्टारकमहाराजाधिराजश्रीराज्यवर्द्धनदेव पादनांचपुण्ययशोभिवृद्धयेभरद्वाजसगोत्रबह्वृचच्छन्दोगसब्रह्मचारिभट्टबालचन्द्रभद्रस्वामिभ्यांप्रतिग्रहधर्मेणाग्रहारत्वेनप्रति पादितो विदित्वा भवद्भिः समनुमन्तव्यः प्रतिवासि जनपदैरप्याज्ञश्रवणविधेयैर्भूत्वा यथासमुचित तुल्यमेयभागभोग करहिरण्यादिप्रत्याया एतयोरेवोपनेयाः सेवोपस्थानं च करणीयमित्यपि च।
अस्मत्कुलक्क्रममुदारमुदाहरद्भि
रन्यैश्च दानमिदमभ्यनुमोदनीयम् ।
लक्ष्यास्तडित्सलिलबुद्बुद्चंचलाया
दानं फलं परयशः परिपालनंञ्च ।।2।।
कर्मणा मनसा वाचा कर्त्तव्यं प्राणिभिर्हितम्
हर्षेणैतत्समाख्यातं धर्मार्जनमनुत्तमम् ।3।
दुतको ऽ त्र महाप्रमातारमहासामन्तश्रीस्कन्दगुप्तः महाक्षपटलाधिकरणधिकृत महासामन्तमहाराजभानुसमादेशा दुत्कीर्णमीश्वरेदमिति। संवत् 20ᐩ2 कीर्ति वदि 1। स्वहस्तो मम महाराजाधिराजश्रीहर्षस्य।
अनुवाद :-
सिद्धि, कल्याण हो। नाव, हस्ति तथा अश्वों से युक्त वर्धमानकोटि के जयस्कन्धावार (सैनिक शिविर) से (यह घोषित किया गया)- एक महाराज नवर्धन हुए। उनकी रानी श्री वज्रिणी देवी से महाराज राज्यवर्धन उत्पन्न हुए जो उनके चरणों के ध्यान में रत तथा सूर्य के महान् भक्त थे। (उनकी महिषी) अप्सरो देवी से महाराज आदित्यवर्धन का जन्म हुआ जो अपने पिता के चरणों के ध्यान में रत तथा सूर्य के महान् भक्त थे। (उनकी महिषी) महासेनगुप्ता देवी से उनके एक पुत्र परमभट्टारक महाराजाधिराज प्रभाकरवर्धन उत्पन्न हुए। वे भी अपने पिता के ध्यान में रत तथा सूर्य के परम भक्त थे। इस महाराज प्रभाकरवर्धन का यश चारों समुद्रों का अतिक्रमण कर गया। उनके प्रताप एवं प्रेम के कारण दूसरे शासक उनको सिर नवाते थे। इसी महाराज ने वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा हेतु अपना बल प्रयोग किया तथा सूर्य के समान प्रजा के दुखों का नाश किया। (उनकी रानी) निर्मल यश वाली यशोमती देवी से बुद्ध के परम भक्त तथा उन्हीं के समान परोपकारी परमभट्टारक महाराजाधिराज राज्यवर्धन उत्पन्न हुए। ये भी पिता के चरणों के ध्यान में रत तथा सूर्य के परम भक्त थे। इनकी उज्जवल कीर्ति के तंतु समस्त भुवनमण्डल में व्याप्त हो गये। उन्होंने कुवेर, वरुण, इन्द्र आदि लोकपालों के तेज को धारण कर सत्य एवं सन्मार्ग से संचित द्रव्य, भूमि आदि याचकों को देखकर उनके हृदय को संतुष्ट किया । इनका चरित्र अपने पूर्वगामी शासकों से बढ़कर था।
जिस प्रकार दुष्ट घोड़े को चाबुक के प्रहार से नियंत्रित किया जाता है उसी प्रकार देवगुप्त आदि राजाओं को एक ही साथ युद्ध में दमन कर, अपने शत्रुओं को समूल नष्ट कर पृथ्वी को जीता तथा प्रजा का हित करते हुए सत्य का पालन करने के कारण शत्रु के भवन में प्राण त्याग दिया।
इन्हीं महाराजा राज्यवर्धन के अनुज, उनके चरणों के ध्यान में रत, परमशैव तथा शिव के समान प्राणीमात्र पर दया करने वाले परमभट्टारक महाराजाधिराज हर्ष ने अहिछत्र भुक्ति के अंतर्गत अंगदीय विषय के पश्चिमी मार्ग से मिला हुआ मर्कटसागर ग्राम में एकत्रित महासामन्त, महाराज, दौस्साधसाधनिक, प्रमातार, राजस्थानीय, कुमारामात्य, उपरिक, विषयपति, चाट, भाट, सेवक तथा निवासियों के लिये प्रस्तुत राजाज्ञा प्रसारित की-
सर्वसाधारण को ज्ञात हो कि मैंने अपने पिता परमभट्टारक महाराजाधिराजा प्रभाकरवर्धन, माता परमभट्टारिका महारानी यशोमती देवी तथा पूज्य अग्रज महाराज राज्यवर्धन के पुण्य एवं यश को बढ़ाने के लिए अपनी सीमा तक फैले हुए उपरोक्त ग्राम को-उसकी समस्त आय के साथ जिस पर राजवंश का अधिकार का, सभी प्रकार के भारों से मुक्त तथा अपने विषय से अलग कर पुत्र-पौत्रादि के लिए जब तक सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी स्थित रहे, तब तक भू छिन्द्र न्याय से- भारद्वाज के ऋग्वेदी भट्ट बालचन्द्र तथा भारद्वाज गोत्रीय सामवेदी भट्ट भद्रस्वामी को अग्रहार रूप में दान दिया। यह जानकर आप सब इसे स्वीकार करें। इस ग्राम के निवासी हमारी आज्ञा को स्वीकार करते हुए तुल्य, मेय, भाग, भोग, कर, सुवर्ण आदि इन्हीं दोनों ब्राह्मणों को प्रदान करें तथा इन्हीं की सेवा में रत हों। इसके अतिरिक्त हमारे महान कुल के साथ संबंध का दावा करने वाले दूसरे जन भी इस दान को मान्यता दें। लक्ष्मी का, जो जल के बुलबुले तथा विद्युत की भाँति चंचला है, का फल दान देने तथा दूसरों के यश की रक्षा करने में है। (अतः मनुष्य को) मन, वाणी एवं कर्म से सभी प्राणियां का कल्याण करना चाहिए। इसे हर्ष ने पुण्यार्जन का सबसे श्रेष्ठ साधन कहा है। इस संबंध में महाप्रमातार, महासामन्त श्री स्कन्दगुप्त तथा दूतक महाप्रमातार हैं। महाक्षपटलाकरणाधिकृत महासामन्त महाराज भानु की आज्ञा से ईश्वर द्वारा इसे अंकित कराया गया है। कार्तिक वदी 9 संवत् 22। महाराजाधिराज श्री हर्ष के अपने हाथ (हस्ताक्षर से)।