गंगोला राज्य पद कुमाऊँ में चंद वंश के शासन काल में अस्तित्व में आया था। चंद राज्य पदों की एक विशेषता थी कि कालान्तर में एक राज्य पद जातिगत व्यवस्था में परिवर्तित हो एक जाति बन जाती थी। जैसे विशिष्ट राज्य पद से कुमाऊँ में बिष्ट जाति अस्तित्व में आयी। कुमाऊँ की बिष्ट जाति में ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों वर्ण सम्मिलित हैं। बिष्ट की भाँति गंगोला राज्य पद भी कालान्तर में एक जाति में परिवर्तित हो गयी। वर्तमान में गंगोला कुमाऊँ में क्षत्रियों की एक जाति भी है, जो नैनीताल जनपद के ओखलकाण्डा के कुलौरी ग्राम सभा में निवास करते हैं। लेकिन पंडित बद्रीदत्त पाण्डे गंगोला जाति को वैश्य वर्ण की श्रेणी में रखते हैं और लिखते हैं- ‘‘ ये साह लोग पहले गंगोली में मणकोटी-राज्य काल में थे, अब भी है। अल्मोड़ा बसने पर जो अल्मोड़ा में आये, वे ‘गंगोला’ उपनाम से प्रसिद्ध हुए।
गंगोला राज्य पद की भाँति समय-समय पर चंद काल में विशिष्ट, चार बूढ़ा, चौधरी, छः गौर्या, बारह अधिकारी, छः थर और बारह अधिकारी राज्य पद अस्तित्व में आये थे। चंदों से पूर्व कुमाऊँ पर शासन करने वाले प्राचीन पौरव और कार्तिकेयपुर राजवंश के नरेशों द्वारा निर्गत ताम्रपत्रों से भी विशिष्ट राज्य पदों का उल्लेख प्राप्त होता है। इन प्राचीन ताम्रपत्रों से उपरिक, प्रमातार, प्रतिहार, कुमारामात्य, दण्डपासिक, विषयपति, पीलुपत्यश्वपति जैसे राज्य पदों के अतिरिक्त अन्य कर्मचारी- भट, चट, सेवक आदि का भी उल्लेख प्राप्त होता है। कर्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के राज्य वर्ष 21 वें ताम्रपत्र में लगभग 57 राज्य पदों का उल्लेख किया गया है। जहाँ चंद ताम्रपत्रों से राज्य पदों के साथ व्यक्तिगत साक्षियों के नाम प्राप्त होते हैं, वहीं प्राचीन पौरव और कार्तिकेयपुर राजवंश के ताम्रपत्रों में केवल राज्य पदों का उल्लेख किया गया है, व्यक्तिगत साक्षियों का नहीं।
चंद राज्य के राज्य पद-
सर्वप्रथम चंद राजा अभयचंद के शाके 1306 या सन् 1384 ई. के प्रकाशित ताम्रपत्र से ’बाइसै सहस का पाउला’ और ’पंद्र विसि’ जैस राज्य पदों का उल्लेख प्राप्त होता है। विद्वानों ने इन राज्य पदों को संख्या के आधार पर कर्मकार समाज से संबद्ध किया। चौदहवीं शाताब्दी के चंद राजा अभयचंद के पश्चात राजा रुद्रचंद (1568-1597) तक लगभग दो सौ वर्षों के चंद शासन काल में अनेक राज्य पद अस्तित्व में आये, जिनका उल्लेख प्रकाशित चंद ताम्रपत्रों से प्राप्त होता है। उनमें प्रमुख ’चार थान’, ’आटू विस का बूढ़ा’, ’चार बूढ़ा’, ’पन्द्रह शय’, ’छइ गौर्या’, विसुंगा, गंगोलो और बारह अधिकारी आदि थे।
सत्रहवीं शताब्दी में रुद्रचंद के पुत्र लक्ष्मीचंद के शासनादेशों से नेगी, रतगलि, सिकदार तथा उनके पुत्र दिलीपचंद के ताम्रपत्र से छः थर नामक राज्याधिकारी का उल्लेख प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त चंद ताम्रपत्रों से प्रधान, राजगुरु, राजपुरोहित आदि उच्च राज्य पदों का भी उल्लेख प्राप्त होता है। सोलहवीं शताब्दी तक निर्गत हुए चंद ताम्रपत्रों से परम्परागत राज्य पदों का उल्लेख प्राप्त होता है। लेकिन मुगलों के सम्पर्क आने से सिकदार जैसे राज्य पद के अतिरिक्त मुगल दरबारी व्यवस्था को चंद राजाओं ने अपनाया था। मुगल काल में कुमाऊँ के ताम्रपत्रों में औसतन 8 प्रतिशत अरबी-फारसी के शब्द प्रचलन में आ गये थे। जैसे मुकाम, परगना आदि।
गंगोली राज्य पद का सर्वप्रथम उल्लेख-
गंगोली राज्य पद का सर्वप्रथम उल्लेख कल्याणचंददेव के ताम्रपत्र (शाके 1482) से प्राप्त होता है। यह ताम्रपत्र 14 अप्रैल, सन् 1560 ई. को दोपहर 2 बजकर 37 मिनट के उपरांत रामनवमी पर्व निर्गत किया गया था।यह ताम्रपत्र मनीपंत को पिथौरागढ़ के जाख कनारी गांव में भूमि-दान हेतु दिया गया था। इस ताम्रपत्र में साक्षियों के अंतर्गत विशिष्ट राज्य पदों में गंगोला राज्य पद का उल्लेख इस प्रकार से किया गया है- ’’चारै बूढा छइ गौर्या गंगालो विसुंगा सक्तू कूंर निदा।’’ इस ताम्रपत्र में गंगोली के स्थान पर गंगालो शब्द उत्कीर्ण है। चार बूढ़ा को विद्वान चम्पावत के चार स्थानीय क्षत्रपों- कार्की, तड़ागी, चौधरी और बोरा से संबद्ध करते हैं। छः गौर्या के संबंध में विद्वानों के मत विरोधाभाषी हैं। एक मत के अनुसार ये षटकुली ब्राह्मणों का समूह था। जबकि एक अन्य मतानुसार छः गौर्या में सोर के छः क्षत्रिय महर, सौन, खड़ायत, वल्दिया, सेठी और रावल सम्मिलित थे। विसुंगा में चम्पावत की विसुंग क्षेत्र की पांच क्षत्रिय मारा, फर्त्याल, ढेक, करायत और देव सम्मिलित थे।
गंगोल पट्टी से संबद्ध गंगोली राज्य पद-
’चार बूढ़ा’ तथा ’छः गौर्या’ के साथ ’गंगालो’, ’विसुंगा’ नामक राज्य पदों का सृजन कल्याणचंददेव ने राज्य विस्तार के साथ किया। गंगालो और विसुंगा के सन्दर्भ में डॉ. रामसिंह लिखते हैं- ’’गंगालो- गंगोल पट्टी वाले मौनी क्षत्रिय (सम्भवतः)।’’ ’गंगालो’ को ’गंगोल पट्टी’ के रूप में पहचान करना इस तथ्य पर आधारित है कि इस ताम्रपत्र की सातवीं पंक्ति में उल्लेखित ’गंगालो’/गंगोल का परवर्ती लिखा गया शब्द ’बिसुंगा’ भी ब्रिटिश कालीन कुमाऊँ की एक पट्टी थी। चंद कालीन चार बूढ़ा, छः गौर्या, विसुंगा आदि में एक से अधिक क्षत्रिय सम्मिलित थे, वहीं गंगालो नामक राज्य पद को मात्र गंगोल पट्टी के मौनी क्षत्रिय से संबद्ध करना, राज्य पदावस्थपना सिद्धांत के विरुद्ध एक अवधारणा है। ’गंगालो’ को गंगोल पट्टी के स्थान पर गंगोली राज्य से संबद्ध कर सकते हैं। सोहलवीं शताब्दी के मध्य कालखण्ड में चंद राजा कल्याणचंददेव ने मणकोटी राजा नारायणचंद को पराजित कर गंगोली पर अधिकार कर लिया था। संभवतः उनके द्वारा गंगोली हेतु निर्मित एक नवीव राज्य पद ’गंगोलो’ या गंगोला था।
प्रकाशित चंद ताम्रपत्रों से स्पष्ट होता है कि चंद राज्य में राज्य विस्तार के साथ विशिष्ट पदाधिकारियों को पदास्थापित करने की एक परम्परा बन चुकी थी। उदाहरणतः बालो कल्याणचंददेव के पश्चात सन् 1568 ई. में रुद्रचंद गद्दी पर बैठे और उनके ’’पाली बूढ़ाकेदार ताम्रपत्र’’ (शाके 1490/सन् 1568 ई.) में विशिष्ट राज्य पद ’चार बूढ़ा’ के साथ ’बारह अधिकारी’ और ’गंगोलो’ का भी उल्लेख किया गया है। ‘बारह अधिकारी’ राज्य पद का उल्लेख करने वाला यह पहला चंद ताम्रपत्र है। ‘बारह अधिकारी’ के साथ-साथ ’गंगोलो’ राज्य पद को एक बार पुनः बूढ़ाकेदार ताम्रपत्र में स्थान देना, इस विशिष्ट राज्य पद को महत्वपूर्ण बनाता है। गंगोलो को एक लघु भू-भाग/पट्टी के रूप में सीमित करना, इस राज्य पद के महत्व को कम करना है। कल्याणचंददेव और रुद्रचंददेव के ताम्रपत्रों में उल्लेखित एक विशिष्ट राज्य पद ’गंगालो’ सरयू-पूर्वी रामगंगा अंतस्थ क्षेत्र गंगोली हेतु प्रयुक्त राज्य पद था। इसलिए ’गंगालो’ नामक राज्य पद का उल्लेख सर्वप्रथम सन् 1560 ई. के ताम्रपत्र में किया गया, जो गंगोली में चंद शासन की पुष्टि करता है। अतः उक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि गंगोल जैसी एक लघु पट्टी’ हेतु एक विशिष्ट राज्य पद की पदावस्थापन करना उचित प्रतीत नहीं होता है।
गंगोली राज्य से संबद्ध गंगोली राज्य पद-
’गंगोला’ या ’गंगालो’ नामक विशिष्ट राज्य पद से संबंधित तीन ताम्रपत्रों का विश्लेषण आवश्यक है। ये तीन ताम्रपत्र शाके 1482, 1490 (सन् 1568 ई.) और ’’शाके 1545’’ (सन् 1623 ई.) हैं, जो क्रमशः चदं राजा बालो कल्याणचंददेव, रुद्रचंददेव और दिलीपचंद के हैं। इन तीन ताम्रपत्रों में प्रयुक्त ’गंगोला’ या ’गंगालो’ का विश्लेषण इस प्रकार से है-
चंद राजाओं के प्रकाशित ताम्रपत्रों में ’गंगालो’ या ’गंगोला’ का सर्वप्रथम उल्लेख सन् 1560 ई. के ताम्रपत्र में किया गया था। बालो कल्याणचंददेव के पश्चात सन् 1568 ई. में रुद्रचंद चंद राजगद्दी पर बैठे। उनके द्वारा निर्गत पाली बूढ़ाकेदार ताम्रपत्र (सन् 1568 ई.) में विशिष्ट राज्य पदों- चार बूढ़ा, बारह अधिकारी के साथ भी ’गंगालो’ या ’गगोला’ का उल्लेख किया गया है। बूढ़ाकेदार ताम्रपत्र में उल्लेखित विशिष्ट राज्य पदांं का विभाजन इस प्रकार से कर सकते हैं- चार बूढ़ा- चम्पावत, बारह अधिकारी- अल्मोड़ा और पाली पछाऊँ तथा ’गंगोला’ या ’गंगालो’ सरयू-पूर्वी रामगंगा अंतस्थ क्षेत्र गंगोली का एक राज्य पद।
सन् 1623 ई. में चंद राजा दिलीपचंद ’’क्षय रोग’’ के कारण राज-काज चलाने में असमर्थ्य थे। इस चंद राजा के कुमौड़ ताम्रपत्र (सन् 1623 ई.) में ’गगोला’ और ’छः थर’ नामक विशिष्ट राज्य पदों का उल्लेख किया गया है। जबकि इनके पिता लक्ष्मीचंद पुत्र रुद्रचंद के तिथि रहित ’’बड़ालू-ताम्रपत्र’’ से नवीन शासकीय पदों- नेगी, साउ, रतगलि, सिकदार आदि का उल्लेख प्राप्त होता है। लक्ष्मीचंद के शासन काल में राजकीय पदों में व्यापक परिर्वतन का उल्लेख बद्रीदत्त पाण्डे भी करते हैं। अतः शासकीय पदावस्थापन में परिवर्तनोपरांत भी सन् 1623 ई. के कुमौड़ ताम्रपत्र में ’गगोला’ और ’छः थर’ का उल्लेख, चंद शासन-व्यवस्था में पुनः एक और परिवर्तन की ओर संकेत करता है। इस परिवर्तन हेतु चंद राजा विजयचंद के त्रिमूर्ति सलाहाकार जिम्मेदार थे। इस ताम्रपत्र के अनुसार ’गगोला’ और ’’छः थर को क्रमशः गंगोली और सोर क्षेत्र की प्रशासनिक इकाई’’ से संबद्ध कर सकते हैं।
सन् 1623 ई. में चंद राजा विजयचंद ने ’’त्रिमूर्ति सलाहाकार’’ (पीरू गुसाईं, सुमतु कार्की या सुर्त्ताण कार्की या शकराम कार्की और विनायक भट्ट) के प्रभाव में आकर प्रशासनिक स्तर पर बड़े बदलाव किये। सन् 1581 ई. से 1623 ई. मध्य तक प्रकाशित हुए चंद ताम्रपत्रों में ’गगोला’ या ’गंगालो’ नामक विशिष्ट राज्य पद का उल्लेख नहीं मिलता है। संभवतः इस समयावधि में चंद राज्य में ’गंगालो’ या ’गगोला’ नामक राज्य पद अस्तित्व में नहीं था। वास्तव में इस समयावधि में गंगोली में सामन्तीय शासन था, जिसकी पुष्टि किरौली ताम्रपत्र (सन् 1597), गणाई ताम्रपत्र (सन् 1610) और महेन्द्रपाल का गणाई ताम्रपत्र (सन् 1622) करते हैं। इन ताम्रपत्रां से गंगोली में रजवार उपाधि धारक राजाओं के संबंध में सूचना प्राप्त होती है, जो चंद राजाओं के अधीनस्थ शासक थे। ये रजवार उपाधि धारक शासक अस्कोट के पाल वंश के थे। सीराकोट विजय सन् 1581 ई. के उपरांत चंद राजा रुद्रचंद ने सरयू पूर्व का समस्त राज्य अस्कोट पाल वंश को सौंप दिया।
सन् 1581 से सन् 1623 ई. मध्य में गंगोली में सामन्तीय शासन होने के कारण गंगोला नामक राज्य पद अस्तित्व में नहीं था। विजयचंद के त्रिमूर्ति सलाहाकारों ने सन् 1623 ई. में गंगोली के सामन्तीय शासन का सदैव के लिए अंत कर दिया। अतः गंगोली में 41 वर्षो के सामन्तीय शासक के उपरांत गंगोला नामक राज्य पद पुनः पदावस्थापित हो पाया। समूहगत राज्य पद सिद्धान्त के अनुसार चार बूड़ा में चम्पावत के क्षेत्रीय क्षत्रप सम्मिलित थे, उसी प्रकार गंगालो या गंगोला नामक विशिष्ट राज्य पद में गंगोली के प्रभावशाली पंत, उप्रेती, पाठक, जोशी, उपाध्याय, भट्ट, काण्डपाल, महरा, बोरा, रावत, कार्की, बाफिला, धपोला, कोश्यारी, बनकोटी, रौतेला, रावत नगरकोटी, राठौर, दशौनी, माजिला, भौंर्याल, गढ़िया, भण्डारी, मेहता आदि में से कुछ क्षत्रप अवश्य सम्मिलित थे।
डॉ. नरसिंह