उत्तराखण्ड के प्राचीन कुणिन्द राजवंश का पतन तृतीय शताब्दी ई. के आस पास माना जाता है। चतुर्थ शताब्दी में कुणिन्द जनपद के स्थान पर प्रयाग स्तम्भ लेख में कर्तृपुर राज्य का उल्लेख किया गया है। ‘‘समुद्रगुप्त की प्रशस्ति में नेपाल के पश्चिम में स्थित कर्तृपुर का समीकरण कुमाऊँ-गढ़वाल के किया जाता है, जिसमें रुहेलखण्ड और यमुना का पश्चिमी भाग भी सम्मिलित रहा होगा।’’ समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तम्भलेख (‘’समतट-डवाक-कामरूप-नेपाल-कर्तृपुरादिप्रत्यन्त-नृपति’’) में नेपाल के साथ कर्तृपुर का उल्लेख किया गया है। इसी लेख के आधार पर नेपाल के पश्चिम में स्थित प्राचीन सीमान्त राज्य को कर्त्तपुर कहा गया। विभिन्न विद्वानों ने कर्तृपुर राज्य के भूगोल को निम्नलिखित प्रकार से रेखांकित किया है।
1. फ्लीट- ’’फ्लीट ने नेपाल से पश्चिम की ओर स्थित उक्त कर्तृपुर राज्य की पहचान जलन्धर जनपद में स्थित करतारपुर से की है।’’।
2. राय चौधरी- ’’राय चौधरी की धारणा है कि कर्तृपुर राज्य का विस्तार जलन्धर जनपद में स्थित करतारपुर से लेकर गढ़वाल, कुमाऊँ और रोहिलखण्ड तक था।’’
3. ओलढाम- ’’ओलढाम आदि विद्वान मानते हैं कि कर्तृपुर कैंत्युरी राज्य का पुराना नाम था और उनका विस्तार गढ़वाल-कुमाऊँ और रोहिलखंड तक था।’’
4. के.सी. श्रीवास्तव- ’’कर्तृपुर की पहचान जालन्धर स्थित कर्त्तारपुर से की जाती है। एक मत के अनुसार इसके अन्तर्गत कुमायूँ, गढ़वाल तथा रुहेलखण्ड का प्राचीन कतूरियाराज प्रदेश भी आता है।’’
उपरोक्त विवरणों से स्पष्ट है कि विद्वान ’कर्तृपुर’ की पहचान करतारपुर और कत्यूरी-कार्तिकेयपुर नगर से करते हैं। कर्तृपुर के भूगोल को निर्धारित करने में विद्वानों में मतभेद है। लेकिन अधिकांश विद्वान उत्तराखण्ड की ओर संकेत करते हैं। प्रयाग प्रशस्ति के अतिरिक्त हर्ष चरित, देवीचन्द्रगुप्तम् और काव्यमीमांसा आदि साहित्यिक स्रोत कर्तृपुर राज्य की पहचान करने में सहायक हैं। राजशेखर की कृति काव्यमीमांसा (दशवीं शताब्दी) में उद्धृत एक श्लोक से विदित होता है कि हिमालय में स्थित कार्तिकेय नगर में कोई बलशाली खसाधिपति शासन करता था।
खसाधिपति और गुप्त वंश के संबंध में विशाखदत्त रचित नाटक देवीचन्द्रगुप्तम् में एक घटना का उल्लेख हुआ है, जिसके अनुसार चन्द्र गुप्त द्वितीय का भाई राम गुप्त शकों से पराजित होकर अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को युद्ध-दण्ड के रूप में देने को तैयार हो गया था। परन्तु चन्द्रगुप्त ने स्त्री के छद्मवेश में शकपति को मार डाला। राजशेखर की कृति काव्यमीमांसा में रामगुप्त को शर्मगुप्त तथा शकाधिपति को खसाधिपति कहा गया है।
काव्यमीमांसा का श्लोक-
’’दत्वा रुद्धगतिः खसाधिपतये देवीं ध्रुवस्वामिनीं,
यस्मातखण्डित साहसो निववृते श्रीशर्मगुप्तो नृपः।
तस्मिन्नेव हिमालये गिरिगुहाकोणक्वणित्किन्नरे,
गीयन्ते तव कार्तिकेय नगरस्त्रीणां गणैः कीर्तयः।।’’
(’’शर्मगुप्त नामक राजा पराजित हो जाने के कारण अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी को खशाधिपति को समर्पित करने के लिए तैयार हो गया था। उसी हिमालय पर्वतमाला में कार्तिकेय ने अपने शत्रुओं का संहार किया जिससे नगरवधुयें उसके यश का गान करने लगीं। यहाँ कार्तिकेय से तात्पर्य चन्द्रगुप्त से ही है।’’)
काव्यमीमांसा के अतिरिक्त बाणभट्ट की कृति हर्षचरित में भी इस घटना का उल्लेख इस प्रकार किया गया है- ’’अरिपुरे च परकलत्रं कामुकं कामिनिवेषगुप्तः चन्द्रगुप्तः शकपतिं अशातयत्।’’ अर्थात अरिपुर में दूसरे की पत्नी का इच्छुक शकपति की स्त्रीवेशधारी चन्द्रगुप्त ने हत्या की। सातवीं सदी में बाणभट्ट घटना स्थल के लिए ’अरिपुर’ तथा दशवीं सदी में राजशेखर घटना स्थल हेतु कार्तिकेय नगर का उल्लेख करते हैं, जो हिमालय में स्थित था। शकाधिपति या खसाधिपति और चन्द्रगुप्त प्रसंग का उल्लेख करने वाले दोनों ही लेखक कन्नौज राज्य से संबंधित थे।
राजा हर्ष (606-647 ई.) के काल में कन्नौज उत्तर भारत में सत्ता का केन्द्र बन चुका था। कवि बाणभट्ट, हर्ष के दरबारी कवि और हर्षचरित के रचयिता थे। जबकि कवि ‘राजशेखर’ कन्नौज के प्रतिहार वंशीय महेन्द्रपाल (890-908 ई.) तथा उनके पुत्र महीपाल (910-940 ई.) की राजसभा में थे। प्रतिहार वंश ने ही हर्ष के मृत्यूपरांत नौवीं-दशवीं शताब्दी में कन्नौज को पुनः उत्तर भारत में केन्द्रीय शक्ति के रूप में स्थापित किया था। कन्नौज के इन दो लेखकों ने इस घटना (ध्रुवस्वामिनी प्रकरण) का जो विवरण प्रस्तुत किया, उसका विश्लेषण इस प्रकार से है-
सातवीं शताब्दी का अरिपुर दशवीं शताब्दी में कार्तिकेय नगर में परिवर्तित हो गया। उत्तराखण्ड के तथाकथित कत्यूरी ताम्रपत्रों (नौवीं शताब्दी) में उल्लेखित ’कार्तिकेयपुर’ को दशवीं शताब्दी में राजशेखर ने ’कार्तिकेय नगर’ कहा। जबकि बाणभट्ट ने चौथी शताब्दी के प्रयाग स्तम्भ लेख के कृर्तपुर को सातवीं शताब्दी में ’अरिपुर’ कहा। नेपाल के पश्चिम में स्थित भू-भाग का नाम चौथी सदी में अरिपुर के स्थान पर ’कर्तृपुर’ था, जिसका उल्लेख प्रयाग स्तम्भ लेख में किया गया है। ‘‘यू.एन.राय का विचार है कि कार्तिकेय नगर या कार्तिकेयपुर वस्तुतः प्रयाग प्रशस्ति में उल्लिखित कर्तृपुर नामक स्थान है जो समुद्रगुप्त का प्रत्यन्त राज्य था।’’ भण्डारकर ने युद्ध-स्थल कार्तिकेय नगर मानते हुए इसकी पहचान बागेश्वर जनपद के बैजनाथ ग्राम से की है, जिसे कार्तिकेयपुर भी कहा जाता है।
बाणभट्ट के वर्णन में चन्द्रगुप्त और शकपति का उल्लेख है। जबकि राजशेखर लगभग 300 वर्षोंपरांत चन्द्रगुप्त के स्थान पर कार्तिकेय और रामगुप्त के स्थान पर शर्मगुप्त तथा धु्रव स्वामिनी का भी उल्लेख करते हैं। राजशेखर का ‘‘काव्यमीमांसा अलंकार शास्त्र पर लिखा गया काव्य है।’’ अतः राजशेखर ने चन्द्रगुप्त के स्थान पर कार्तिकेय नगर विजेतानुक्रम में ‘कार्तिकेय’ नाम का उल्लेख किया। जबकि शर्म’ संस्कृत का पुल्लिंग शब्द है, जिसका अर्थ सुख, गृह होता है। पराजित राजा अपने सुख या गृह को बचाने हेतु अपनी पत्नी को दांव में लगा दे, तो ऐसे राजा हेतु राजशेखर ने रामगुप्त के स्थान पर ’शर्मगुप्त’ नाम प्रयुक्त किया।
हर्षचरित (सातवीं शताब्दी) में उल्लेखित ’शक’ को काव्यमीमांसा (दशवीं शताब्दी) में ’खस’ कहा गया। कन्नौज के दरबारी कवि राजशेखर ने लगभग छः सौ वर्ष पहले मध्य हिमालय में स्थापित हो चुके ‘शक’ जाति को ’खस’ कहा। अर्थात दशवीं शताब्दी में शक या खस एक जाति थी या इस शताब्दी में शक जाति पूर्णतः खस जाति में विलीन हो चुकी थी। दूसरा पक्ष यह भी है कि- राजशेखर ने काव्य अलंकरण हेतु शक राजा को खसाधिपति अर्थात खस का अधिपति कहा। शकों का अस्तित्व भारत में तीसरी शताब्दी के आस पास था। जबकि खस हिमालय क्षेत्र के प्राचीन निवासी थे, जिनका उल्लेख महाभारत में भी किया गया है। महाभारत के सभापर्व में खस जाति का वर्णन इस प्रकार से किया गया है-
’’खशा एकासना ज्योहाः प्रदराःदीर्घवेणवः।
पारदाश्च कुलिन्दाश्च तड.णाःपरतड.णाः।।’’
महाभारत के इस उद्धरण में खश, पारद, कुलिन्द, तड.णा और परतड.णा आदि जातियां का उल्लेख किया गया है। कार्तिकेयपुर उद्घोष वाले कत्यूरी ताम्रपत्रों से भी खस और किरात जाति का उल्लेख प्राप्त होता है। संभवतः मध्य हिमालय के खस जाति को पराजित करने वाले शक राजा हेतु दशवीं शताब्दी में कन्नौज के दरबारी कवि राजशेखर ने खसाधिपति शब्द प्रयुक्त किया (जैसे- चन्द्रगुप्त हेतु-कार्तिकेय और रामगुप्त हेतु- शर्मगुप्त।)।
तीसरी-चौथी सदी में शक जाति ने मध्य हिमालय क्षेत्र पर शासन किया और उन्हें परवर्ती लेखक राजशेखर ने खसाधिपति कह कर संबोधित किया। ‘‘शक तथा खस दोनों ही जातियां पशुचारक थीं। रूप-रंग और आकार-प्रकार में भी उनमें समानता थी। शकजाति के आगमन से बहुत पूर्व ही कश्मीर से पश्चिमी नेपाल तक का सारा हिमालय खशदेश बन चुका था। आगुन्तुक शक तथा अन्य जातियां कालान्तर में उसी खश सागर में विलीन हो गयीं और खस रीति-रिवाजों को अपनाकर उससे अभिन्न हो गई।’’ कुमाऊँ में आज भी क्षत्रिय (योद्धा) को ’खस’ कहा जाता है और इनके लिए स्थानीय भाषा में ’खसिया’/‘खस्सी’ शब्द प्रयुक्त किया जाता है।
राजशेखर इस घटना का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि नगरवधुयें या कार्तिकेयपुर की स्त्रियां चन्द्रगुप्त का यश गान करतीं हैं। यदि राजा खस जाति से होता तो, कार्तिकेयपुर की खसिया स्त्रियां अपने वंशीय राजा को पराजित करने के लिए पाटलिपुत्र के गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त का गुणगान न करतीं। चौथी सदी में मध्य हिमालय पर शक जाति का शासन था, जिसका अन्त चन्द्रगुप्त द्वितीय ने किया। ‘‘शक लोग गुप्तों के समय में पश्चिमी मालवा, गुजरात तथा काठियावाड़ के शासक थे।’’
चौथी शताब्दी के आस पास उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्र में शकों का अधिकार था। संभवतः कुषाणों के पेशावर पर अधिकार के साथ शकों ने उत्तर-पूर्व (मध्य हिमालय) तथा दक्षिण-पश्चिम (गुजरात) की ओर पलायन किया। जबकि कुषाण तीर की भाँति पेशावर (पुरुषपुर) से गंगा-यमुना के मैदान को रौंदते हुए पाटलिपुत्र तक पहुँचे थे। ‘‘उत्तराखण्ड में गंगा के किनारे 6 सित.1972 को मुनी की रेती के पास शिवानन्द आश्रम की खुदाई में कुषाण सम्राटों की 45 स्वर्ण मुद्राएं कुछ आभूषणों के साथ प्राप्त हुई थीं।’’ संभवतः कुषाणों ने शकों का पीछा करते हुए उन्हें मध्य हिमालय के दुर्गम पर्वतीय भागों की ओर धकेल दिया। यह वह समय था, जब मध्य हिमालय का कुणिन्द जनपद पतनोन्मुख स्थिति में था। संभवतः परवर्ती कुणिन्दों का अंत आक्रमणकारी शकों ने किया और मध्य हिमालय के अधिपति बन बैठे।
चौथी शताब्दी के अन्त में चन्द्रगुप्त ने शकों को पराजित कर ‘शकादित्य’ की उपाधि के साथ मध्य हिमालय पर अधिकार कर लिया था। जबकि पूर्ववर्ती गुप्त सम्राट समुद्र गुप्त का प्रयाग प्रशस्ति लेख मध्य हिमालय पर उसके अधिकार की पुष्टि करता है। कर्तृपुर शक नरेश ने समुद्र गुप्त की अधीनता तो स्वीकार की थी। लेकिन रामगुप्त प्रकरण से स्पष्ट होता है कि उसने गुप्तों का जुआं उतार फेंका। मध्य हिमालय क्षेत्र चौथी सदी के अन्त में चन्द्रगुप्त के पराक्रम से पुनः गुप्त साम्राज्य के अधिकार में आ गया। संभवतः चन्द्रगुप्त ने यहाँ प्रतिनिधि शासक की नियुक्ति की।
शक राजा के स्थान पर नियुक्त प्रतिनिधि शासक हेतु अस्कोट-पाल और डोटी-मल्ल वंश के आदि पुरुष ’शालिवाहन’ सबसे उपयुक्त प्रतीत होते हैं, जिनके वंशज आसन्तिदेव आठवीं शताब्दी में जोशीमठ से कत्यूर घाटी में आये थे और कत्यूरी कहलाये। ‘‘अंग्रेज लेखकों का अनुमान है कि कत्यूरी राजा आदि में जोशीमठ ज्योतिर्धाम में रहते थे।’’ संभवतः चौथी सदी का कर्तृपुर राज्य गढ़वाल-हिमालय में स्थित था। कर्तृपुर राज्य के पश्चात उत्तर गुप्त काल में ब्रह्मपुर के पौरव वंश ने मध्य हिमालय पर शासन किया।