उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास में मध्य हिमालय क्षेत्र के तीन राज्यों स्रुघ्न, गोविषाण और ब्रह्मपुर का विशेष उल्लेख किया गया है। चीनी यात्री ह्वैनसांग के यात्रा विवरण में भी इन तीन राज्यों का उल्लेख किया गया है। चीनी यात्री के यात्रा विवरणानुसार वह स्रुघ्न से मतिपुर, मतिपुर से ब्रह्मपुर तथा ब्रह्मपुर से गोविषाण गया था। स्रुघ्न की पहचान अम्बाला, मतिपुर की हरिद्वार और गोविषाण की पहचान काशीपुर के रूप में हो चुकी है। लेकिन ब्रह्मपुर की पहचान करने में विद्वानों में मतभेद है। यद्यपि सातवीं शताब्दी के भूगोल को समझना और चीनी यात्री ह्वैनसांग के यात्रा विवरण का सटीक विश्लेषण करना कठिन कार्य है। यात्रा विवरण का विश्लेषण भी विद्वानों के तथ्यों में विविधता उत्पन्न करता है। अतः कतिपय इतिहासकारों ने ब्रह्मपुर की पहचान भिन्न-भिन्न स्थानों से की है।
1- ’’एटकिंसन, ओकले तथा राहुल के अनुसार- बाड़ाहाट (उत्तरकाशी)।’’
2- ’’कनिंघम और गुप्ते के अनुसार- लखनपुर वैराटपट्टन।’’
3- ’’सेंट मार्टिन और मुकन्दीलाल के अनुसार- श्रीनगर।’’
4- ’’फूरर के अनुसार- लालढांग के पास पाण्डुवालासोत।’’
5- अन्य- ’’बढ़ापुर, नजीबाबाद।’’
उपरोक्त सभी विद्वानों के मत ’ब्रह्मपुर’ नामक प्राचीन स्थल की पहचान के संबंध में अत्यधिक विरोधाभाषी है। ब्रह्मपुर जनपद के भौगोलिक सीमांकन के अनुसार बाड़ाहाट (उत्तरकाशी नगर) तो ब्रह्मपुर राज्य की अंतः सीमा में ही नहीं था। ह्वैनसांग के यात्रा विवरणानुसर यमुना नदी ‘सु्रघ्न’ जनपद के मध्य में और गंगा नदी पूर्ववर्ती सीमा थी। इस आधार पर विद्वानों ने भागीरथी से काली नदी मध्य पर्वतीय भू-भाग को ‘ब्रह्मपुर’ राज्य के रूप में चिह्नित किया। अतः एटकिंसन, ओकले और राहुल आदि के मत को विद्वानों द्वारा सीमांकित ब्रह्मपुर का भूगोल निरस्त कर देता है।
इसी प्रकार सेंट मार्टिन और मुकन्दीलाल का ब्रह्मपुर ’श्रीनगर’ ऐसा स्थान है, जो भौगोलिक दृष्टि से इस राज्य की परिधि पर स्थित था। इसलिए श्रीनगर राजधानी के लिए उपयुक्त स्थान प्रतीत नहीं होता है। अन्य मतों में एक बढ़ापुर, नजीबाबाद भी विद्वानों द्वारा सीमांकित ब्रह्मपुर के वाह्य क्षेत्र में स्थित है। ब्रह्मपुर की सीमा के भीतर लालढांग के पास पाण्डुवालासोत और लखनपुर (वैराटपट्टन) भी दो महत्वपूर्ण विकल्प हैं, जिनका विश्लेषण आवश्यक है।
चीनी यात्री के विवरणानुसार मतिपुर और स्थाण्वीश्वर की जलवायु समान थी और मतिपुर से गोविषाण की स्थिति दक्षिणपूर्व में लगभग 66 मील दूर थी। इस आधार पर गोविषाण (काशीपुर) और मतिपुर (हरिद्वार) की पहचान स्पष्ट होती है। ह्वैनसांग स्रुघ्न जनपद से 50 मील उत्तर में ब्रह्मपुर राज्य में गया था। अर्थात ब्रह्मपुर के दक्षिण में 50 मील दूर स्रुघ्न जनपद की सीमा थी, जहाँ से ह्वैनसांग ब्रह्मपुर को गये थे। पाण्डुवालासोत को ब्रह्मपुर मान लें तो, हरिद्वार से लालढांग लगभग पैदल मार्ग से मात्र 14 मील ही दूर पूर्व दिशा में स्थित है।
स्रुघ्न जनपद की सीमा से मात्र 14 मील दूरी पर एक शक्तिशाली राज्य ब्रह्मपुर की राजधानी होना संदेहास्पद प्रतीत होता है। जबकि चीनी यात्री ह्वैनसांग के विवरणाधार पर कनिंघम ने ब्रह्मपुर राज्य का घेरा लगभग 666 वर्ग मील निर्धारित किया। पाण्डुवालासोत नामक स्थान एक विशाल जनपद सु्रघ्न के सीमावर्ती क्षेत्र पर था, जो सुरक्षा के दृष्टिकोण से ब्रह्मपुर राज्य की राजधानी के लिए उचित स्थान नहीं हो सकता था। ब्रह्मपुर की पहचान का सर्वाधिक मान्य मत कनिंघम और गुप्ते का है, जिन्होंने पश्चिमी रामगंगा घाटी में स्थित लखनपुर-वैराटपट्टन को ‘ब्रह्मपुर’ कहा।
अलेक्जैंडर कनिंघम भारतीय पुरातत्व विभाग के प्रथम महानिदेशक सन् 1861 से 1865 ई. तक रहे। इस दौरान उन्होंने तक्षशिला, नालन्दा जैसे प्राचीन ऐतिहासिक स्थलों का अन्वेषण कार्य अपने निर्देशन में करवाया। उत्तराखण्ड में उन्होंने रामगंगा घाटी में स्थिल वैराटपट्टन के अन्वेषण का कार्य किया। ब्रिटिश शासन काल में यह अन्वेषण स्थल परगना पाली-पछाऊँ में का एक गांव था।
ब्रिटिश कालीन परगना पाली-पछाऊँ के प्राचीन इतिहास के संबंध में बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘गिंवाड़ पट्टी में रामगंगा किनारे एक पुराना नगर टूटा पड़ा है, यहाँ ईंटें भी मिलती हैं। इसका नाम विराटनगरी है। वहीं पर रामगंगा के किनारे कीचकघाट भी है। वहीं पर एक दुर्ग का नाम लखनपुर कोट है। इसको इस समय आसन-वासन-सिंहासन के नाम से पुकारा जाता है।’’ कनिंघम ने पाली-पछाऊँ परगने की पट्टी गिंवाड़ के दो निकटवर्ती स्थलों विराटनगरी और लखनपुर कोट को ‘लखनपुर वैराटपट्टन’ कहा। कुमाऊँ क्षेत्र में गाये जाने वाले एक कुमाउनी लोक-कथा गीत में बैराठ के राजा मालूशाही का उल्लेख भी आता है, जिसे कत्यूरी शासक कहा जाता है।
कत्यूरी शासक आसन्तिदेव और वासन्तिदेव के नाम से लखनपुर कोट को आसन-वासन भी कहा जाता है। ऐतिहासिक तथ्यानुसार आसन्तिदेव कत्यूर घाटी (गोमती घाटी, बागेश्वर) के प्रथम राजा थे, जो जोशीमठ से कत्यूर आये और कत्यूरी कहलाये। कत्यूरी वंशावली के अनुसार आसन्तिदेव के वंश मूल पुरुष सूर्यवंशी ‘शालिवाहन’ थे, जो अयोध्या से उत्तराखण्ड आये थे। कत्यूर घाटी पर अधिकार करने के पश्चात आसन्तिदेव ने अपने पुत्र वासन्तिदेव की सहायता के निकटवर्ती चौखुटिया और द्वाराहाट पर भी अधिकार कर लिया था। कत्यूरी स्थापत्य कला के भग्नावशेषों का एक नगर ‘द्वाराहाट’ भी है, जिसके उत्तर-पश्चिम में ‘कोटलार घाटी’ है, जो चौखुटिया नामक स्थान को द्वाराहाट से संबंध करती है। चौखुटिया में ही ‘कोटलार’ नदी और रामगंगा का संगम है।
वर्तमान में कोटलार घाटी से ही होकर राष्ट्रीय राजमार्ग 109, द्वाराहाट को चौखुटिया से संबद्ध करता है। चौखुटिया से एक सड़क मासी-भिकियासैंण-भतरौजखान होते हुए लखनपुर-रामनगर को जाती है। इस सड़क पर चौखुटिया के निकवर्ती स्थल गणाई, भाटकोट और भगोटी हैं। ‘‘गणाई से करीब दो मील दूरी पर लखनपुर या बैराट है, जो कुमाऊँ के प्राचीन राजाओं की राजधानी मानी जाती है।’’ जहाँ अब मां लख्नेश्वरी मंदिर स्थापित है। ‘‘इस लखनपुर के निकट कलिरौ-हाट नामक बाजार था। अब निशान भी बाकी न रहा, नाम बाकी है।’’
चौखुटिया-रामनगर सड़क पर भागोटी के निकट जहाँ लखनपुर नाम से लख्नेश्वरी मंदिर है, वहीं चौखुटिया के निकटवर्ती वैराठेश्वर महादेव को वैराटपट्टन कह सकते हैं। पश्चिमी रामगंगा के बायें तटवर्ती इन दोनों मंदिरों के मध्य लगभग 5 किलोमीटर की दूरी है। ब्रह्मपुर के स्थान पर लखनपुर और वैराटपट्टन नाम कैसे प्रचलन में आ गया ? कत्यूरी शासक आसन्तिदेव के वंशज कालान्तर में धीरे-धीरे अपने राज्य का विस्तार सम्पूर्ण कुमाऊँ में करने में सफल रहे। विस्तृत राज्य को सुरक्षित रखने हेतु इस सूर्यवंशी राजवंश ने राम के अनुज ‘लखन’ नाम से कुमाऊँ के भिन्न-भिन्न स्थानों पर ‘लखनपुर’ नामक उप राजधानियां स्थापित कीं। रामनगर का लखनपुर, चौखुटिया का लखनुपर, जागेश्वर क्षेत्र का लखनुपर, अस्कोट का लखनुपर और सीमान्त भोट क्षेत्र का लखनपुर इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। कत्यूरी राजा मालूशाही को बैराठ या वैराट का राजा कहा जाता है। इस प्रकार ब्रह्मपुर का नाम परिवर्तन कत्यूरी कालखण्ड में हुआ।
अलेक्जैंडर कनिंघम ने लखनपुर वैराटपट्टन की पहचान ब्रह्मपुर से की, जो सही तथ्य प्रतीत होता है। इसी लखनपुर वैराटपट्टन के पश्चिम में स्थित देघाट के निकट तालेश्वर गांव से ही सन् 1915 ई. में ब्रह्मपुर के महान राजवंश ‘पौरव’ वंश के दो शासकों का एक-एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ। इन ताम्रपत्रों में राज्य वर्ष तिथि अंकित है। अर्थात राजा के सिंहासन पर विराजमान होने के वर्ष से ताम्रपत्र निर्गत किये जाने वाले वर्ष की गणना। तालेश्वर ताम्रपत्रों में राज्य का नाम ‘पर्वताकार’ तथा राजधानी ब्रह्मपुर उत्कीर्ण है, जो सर्वश्रेष्ठ नगरी थी। चौखुटिया क्षेत्र के निकटवर्ती तालेश्वर गांव से प्राप्त ब्रह्मपुर नरेशों के ताम्रपत्र, कनिंघम (1814-1893) के अभ्युक्ति की पुष्टि करते हैं। अतः प्राचीन ब्रह्मपुर को वर्तमान चौखुटिया से संबंध कर सकते हैं।
डॉ. शिवप्रसाद डबराल ‘ह्वैनसांग’ के यात्रा विवरणानुसार तर्क प्रस्तुत करते हैं कि यात्री मतिपुर (हरिद्वार) से ब्रह्मपुर, ब्रह्मपुर से मतिपुर और मतिपुर से गोविषाण (काशीपुर) की यात्रा पर गया। अतः ब्रह्मपुर को लखनपुर वैराटपट्टन (चौखुटिया) या लखनपुर (रामनगर) माने तो यात्री इस स्थान से सीधे गोविषाण क्यों नहीं गया ? वापस हरिद्वार आकर गोविषाण की यात्रा को क्यों गया ? इस आधार पर डॉ. शिवप्रसाद डबराल ब्रह्मपुर के लखनपुर वैराटपट्टन के मत पर संदेह करते हैं।
हरिद्वार प्राचीन काल से प्रसिद्ध तीर्थ स्थल रहा था। संभवतः ह्वैनसांग के ब्रह्मपुर यात्रा के दौरान हरिद्वार में कोई महत्वपूर्ण उत्सव/पर्व हो, जिसके कारण ह्वैनसांग गोविषाण के स्थान पर पुनः वापस हरिद्वार गया और उसके पश्चात गोविषाण। संभवतः उस वर्ष हरिद्वार में कुम्भ पर्व आयोजित किया गया हो।
ब्रह्मपुर (पौरव वंश) के ताम्रपत्रों की प्राप्ति चौखुटिया के निकटवर्ती गांव तालेश्वर से और ह्वैनसांग के यात्रा विवरण तथा अलेक्जैंडर कनिंघम के मत के आधार पर कह सकते हैं कि प्राचीन ब्रह्मपुर राज्य ही आज का चौखुटिया है, जो पश्चिमी रामगंगा घाटी का प्रमुख कस्बा है। ‘चौखुटिया’ का शाब्दिक अर्थ ‘चार-खुट’, जहाँ कुमाउनी में ‘खुट’ का अर्थ ‘पद’ (पैर) होता है। चौखुटिया की भौगोलिक स्थिति देखें तो यह पर्वतीय स्थल चारों दिशाओं से नदी घाटियों से संबद्ध है।
तालेश्वर मंदिर, तालेश्वर गांव